पिछली बार जब बारिश हुई थी न,
तब घर के बाहर की सड़क पर
एक चहारदीवारी पर एक पेड़ झुक आया था,
उसकी एक शाखा की एक बड़ी लम्बी सी पत्ती
जो आसमान से गुजरे हुये किसी रॉकेट की लकीर सी लगती थी
रास्ते में कौतूहल से भरी उपस्थित थी,
जब भी घर से निकलना होता
और पेड़ के नीचे पहुँचता
वो पत्ती हमेशा मेरे माथे पर
अपने धारदार किनारे परोस देती,
और हवा में फिर दूर छिटककर जा खड़ी होती,
कोई पंछी जब उस पत्ती पर बैठकर गाया करता था
तब वह पत्ती कितनी शांति से उसे सुना करती थी,
सुबह उस पत्ती से मेरा मिलना हमेशा हुआ करता था
और तब विचार क्रम टूटता था
जैसे दूर गया हुआ एक मुसाफिर
घर की याद से बिफर गया हो।

बहुत दिनों बाद एक दिन उसी सड़क से गुजरा,
कोई वहाँ से नदारद था,
कल रात की आँधी उस पत्ती को लील गयी होगी,
मैं चारों ओर उसे खोजता हूँ,
घर से बाहर अब भी निकलता हूँ
लेकिन लगता है
जैसे मेरी सुबह हुई ही न हो,
या जैसे मैं अपनी गली आया ही न हूँ।


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