(1)
दीप जल उठे थे
घर आँगन में,
मैं एक बार नभ में देखता
फिर एक बार
दीपों की पंक्तियों को
फिर सोचता टिम-टिम करते
तारों को लेकर,
जैसे
आकाश उतर आया हो धरा पर,
शायद इस बार चाँद तारों ने ही
बीड़ा उठा लिया हो,
धरती के हर कोने में
उजियारा करने का,

और
पंडित जी ने कहा था,
दीप शुद्ध देसी घी के ही जलेंगे,
ठीक है
कुपोषण के शिकार बच्चे
ऐसे ही रहेंगे,
चाँद तारों को
इतनी जल्दी
धरती पर आया हुआ
मान लेना
शायद मेरा भ्रम था,
क्यूंकि चाँद तारे पक्षपात नहीं करते।

(2)
हमने दीवाली को
घर के कोने कोने में
दरवाजों खिडकियों पर
बिजली की लड़ियों में
रख दिया था-
हर बार की तरह,
लेकिन ऐसा लग रहा था
जैसे यह मेरी दीवाली नहीं है,
फिर छत पर जाकर देखा
कि बहती बयार से
जूझता हुआ
घी की आखिरी बूँद तक
आखिरी बाती तक
एक नन्हा सा दिया
तिमिर से संघर्ष कर रहा था,
मैंने पटाखों के शोर से दूर
उस दिये के साथ
समय व्यतीत करना अच्छा समझा,
मन आह्लादित हो गया था
उस दिये के प्रकाश में ही
मेरी दीवाली थी।



(1)
अपनी नींद को ना त्यागूँगा कभी मैं
क्यूँकि सपनों में
हम और तुम दोनों ही खुश होते हैं
फिर भी तुम्हारा इल्ज़ाम था कि
तुम बस सपने दिखाते हो। 

(2)
एक बार तो नज़रें मिल ही गयी थीं 
सैलाब सा उमड़ आया था दिल में
अब इस पार तो आँधी है, तूफान है
उस पार ना जाने क्या होगा।

(3)
एक समय था
जब हम और तुम दोनों ही तन्हा थे
और संयोग तो देखो कि
आज कोई भी तन्हा नहीं है
आज तुम्हारे पास तुम्हारा प्यार है
और मेरे पास तुम्हारी यादें हैं।

(4)
तुम्हारे आगे कुछ कहता नही हूँ
बस निहारता हूँ तुम्हें
और तुम्हारी पलकों को झपकते हुए;
और तुम्हारे जाने के बाद
सब बातें तुम्हारी तस्वीर से कह जाता हूँ।

(5)
अब इन अश्कों को कौन समझाए
जो बिन बात के चले आते हैं
तुम्हारे आँसू मेरी कमज़ोरी थे
मेरे आँसुओं का तो तुम्हे पता भी ना होगा।

(6)
बहुत दिन से ख्वाहिश थी
आज उन्हें कुछ चुनकर भेंट किया मैंने
वो बहुत देर तक उस को निहारते रहे
और फिर बोले कितने में लाये;
शायद उन्हें भी किसी को भेंट करना था।

(7)
शब्दों के जंगल में
भावनायें कहीं खो सी गयी हैं
आँखें ही जब इज़हार न कर पाई
तो शब्दों से तो
मुझे कभी उम्मीद भी नहीं थी।

(8)
आज दिनचर्या से जल्दी निवृत्त होकर
छत के किनारे पे खड़े होकर
मैने और चाँद ने
बहुत देर तक तुम्हारी बातें की।

(9)
तुम्हारा प्यार भी
एक अजब समंदर था
उसमे डूब जाने की तरकीब नहीं आई
और पार कर जाना मेरे सामर्थ्य के बाहर था।

(10)
नज़रें ही तो मिली थीं तुमसे
थोड़ा सा मुस्कुराए ही तो थे हम दोनों
चर्चाओं का बाज़ार गर्म हो गया था
सोचता हूँ कि शायद नज़रें ना मिलती
तो इतना बवाल ना होता।


नदी तो चिरकाल से बह रही थी। न जाने कितनी पीढ़ियों को जीवन दिया है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियाँ लाभान्वित होँगी। जब कभी नदी के पास जाकर कुछ देर बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे इसके पास बहुत सी कहानियाँ हों सुनाने के लिए, लेकिन सुने तो कौन? नदी को तो अकेले ही ऐसे बहना था। जैसे कई बार अपना भी मन बहुत सारी बातें करने का करता है, लेकिन कहें तो किससे कहें? इस मामले में हम और नदी एक दूसरे के साथी थे। नदी के किनारे इसके साथ साथ एकांत में कुछ दूर चलने पर ऐसा लगता था कि जैसे हम एक दूसरे के साथ सुख-दुख बाँट रहे हों। ऐसी कितनी ही यादें थी जो कि मैंने आज तक संजो कर रखी हुई हैं। इस नदी ने समय के साथ बहुत सारे बदलाव देखे हैं। और इस नदी की कहानी इसके किनारे बसे एक छोटे से गाँव के बारे में बताये बिना अधूरी रहेगी।

हाईवे की भागदौड़ भरी जिन्दगी से बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी जहाँ प्रवेश करते समय उबड़-खाबड़, ऊँची-नीची ज़मीन देखकर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं होगा कि ये जगह उत्तर भारत के विशाल मैदानी भागों में स्थित है। अगल-बगल ऊसर क्षेत्र हैं, जहाँ वन विभाग के अथक प्रयासों के बाद भी कोई पेड़ सात-आठ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ पाया और एक-दो इंच से ज्यादा चौड़ा नहीं हो पाया। लेकिन ये जगह भी स्थानीय झाड़ियों से भरी हुई थी जिनके लाल-पीले फूल काफी आकर्षित करते हैं। कुछ और ऊँची-नीची सडकों पर चलने के बाद पेड़ों के बीच में बसे हुए कुछ घर नजर आते हैं। ये घर उसी छोटे से गाँव का भाग हैं- एक ऐसा गाँव जो आज भी जीवन की तथाकथित मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। दो तरफ से खेत इस गाँव को घेरे हुए हैं और ये खेत इस गाँव की दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं। और इसी गाँव में कुछ दशक पहले मेरा जन्म हुआ था।

Gomti River

नदी के साथ मेरा पहला परिचय कब हुआ ये तो अच्छी तरह नहीं पता लेकिन इतना जरुर है कि बचपन में मेरा नदी के आसपास फटकना भी मना था। कुछ बड़े होने पर नदी के आसपास जाने लगा लेकिन नदी को स्पर्श कर पाने के लिए अभी और इंतज़ार करना था। और तब दूर से ही अथाह पानी को बहते हुए देखकर आश्चर्य होता था कि इतना पानी आता कहाँ से है और निरुद्येश्य बहते हुए कहाँ जायेगा। पर शायद उसे  निरुद्येश्य कहना मेरा बचकानापन था। बड़े होने पर पता चला था कि नदी तो जीवनदायिनी थी और लोगों का इस नदी के साथ अटूट सम्बन्ध है। गाँव के छप्पर बनाने से लेकर शादी-विवाह की रीतियाँ निभाने में नदी की महती भूमिका थी। किसी की भी शादी के पहले महिलाओं का समूह लोक संगीत गाते हुए नदी के किनारे जाता था, मानो नये वर-वधू के सुखमय जीवन के लिए नदी का आशीर्वाद लेना इतना जरुरी था। जब पहली बार नदी में उतरने का मौका मिला था तब मैं कितनी देर तक उछल-कूद करता रहा था। पहले दिन ही कितनी डुबकियाँ लगायी थी। मैं खूब तेज दौड़कर आता था और किनारे की खड़ी खाईं के ऊपर से नदी में कूदता था। कभी थकान का अनुभव हुआ हो ऐसा याद नहीं है। नदी की लहरें भी हमारे साथ खेलती थीं। आखिर कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हम लोग की टोली नदी का एकांकीपन तो दूर कर ही देती थी। हमारा कभी भी नदी से निकलने का मन शायद ही करता था लेकिन अपने से बड़ों की ज़िद के आगे हमें झुकना पड़ता और नदी फिर अपने रास्ते बह चलती।

आज भी मुझे वो दृश्य अच्छी तरह से याद है जब दादी माँ ने हाथ से नदी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, "ये गोमती माता हैं, इन्हें प्रणाम करो।" और मैंने दोनों हाथ जोड़कर गोमती नदी को प्रणाम किया था। जैसे जैसे हम लोग बड़े होते गये, नदी के साथ हमारा परिचय बढ़ता गया। अब तो हर दूसरे तीसरे दिन घर से इज़ाज़त मिल जाती थी नदी में नहाने के लिये। गाँव में एक ऊँचे स्थान पर एक मंदिर बना हुआ था। इस मंदिर से नदी की तरफ देखने पर सूर्य की किरणें आँखों को बेधने सी लगती। लेकिन चलती हुई नदी में परावर्तित किरणें ऐसे लगती थी जैसे कोई नवजात पालने में झूल रहा हो। नदी को ऐसे मंथर गति से बहते हुए देखकर एक क्षण के लिए ये भूल हो सकती है कि ये हमेशा से ऐसे ही बहती आई है। पर नदी हमेशा से ऐसे ही थोड़े रही है। कई बार नदी को गुस्सा भी आया है। आखिर नदी का स्वाभाव मनुष्य से बहुत अधिक अलग थोड़े ही है। इस क्रोध में नदी ने गाँव के निचले इलाकों में जीवन को बाधित भी किया है लेकिन ऐसा बहुत दिन तक न रहता और नदी अपने शान्तस्वरूप में जल्दी ही आ जाती थी।

नदी और मेरे जीवन में समानता यहीं समाप्त नहीं होती। नदी के स्रोत से समुद्र तक के सफ़र में और मानव जीवन में एक रुचिकर समानता दिखाई देती है। नदी अपने स्रोत से निकलने के बाद पहाड़ों के बीच ऐसे वेग से निकलती है और इसकी लहरें ऐसे हिलोरें लेती हैं जैसे कोई छोटा शरारती बच्चा दौड़-भाग कर रहा हो। मासूमियत से भरपूर इस दौर में भविष्य की चिंता नहीं होती। उसके बाद जब नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो उसके प्रवाह में कुछ कमी आ जाती है, जैसे बच्चों में बड़े होने पर कुछ गंभीरता आ जाती है। बचपन की तरह उछल-कूद अब नहीं होती। थोडा और सफ़र तय करने के बाद नदी की धारा और भी मंद पद जाती है, जैसे किसी वयस्क को जिम्मेदारियों के बोझ तले लाद दिया गया हो। और समुद्र से मिलने से पहले तो प्रवाह इतना मंद हो जाता है, कि उसकी धारा कई छोटे छोटे भागों में बँट जाती है, जैसे वृद्धावस्था में कोई मनुष्य अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो। और यह लड़ाई लड़ते लड़ते आखिरकार अस्तित्व समाप्त हो ही जाता है।

धीरे धीरे समय बीतता गया और मुझे आगे पढने के लिए शहर आना पड़ा। और इस नए जीवन में व्यस्तता में कुछ इतना बढ़ गयी कि नदी के साथ मेरी मुलाकात ख़त्म सी हो गयी। मिलना तो दूर अब नदी को याद किये गए भी कई दिन बीत जाते थे। जब कभी अचानक से नदी की याद आती थी मैं ख्यालों में खो जाता था कि नदी में अब भी पानी वैसे ही बहता होगा। लेकिन यह भी सोचता था कि नदी मेरे बिना कितना अकेला महसूस कर रही होगी। शहर की तेज रफ़्तार जिंदगी से दूर जाकर नदी के किनारे बैठकर लहरों को निहारने का मन करता था। एक साल के बाद जब गर्मी की छुट्टियाँ हुई तो मैं गाँव गया। शाम को वहाँ पहुँचते ही मैं नदी के पास पहुँच गया। लेकिन वहाँ जाकर दूसरा ही दृश्य देखने को मिलता है। नदी का जल-स्तर कम हो गया था और बीच-बीच में रेत के टीले बन गये थे। तब याद आया कि कुछ दिन पहले अख़बार में पढ़ा था कि नदी का पानी रोक कर लखनऊ में जलापूर्ति होती है। नदी में कम होती जल की मात्रा और बढ़ती जनसँख्या के साथ लोगों की बढ़ती जरूरतें नदी के लिए गले का फांस बन गई थी। मुझसे नदी की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। हृदय विदीर्ण हो गया था। मैं वहां से चला आया। कुछ दिन और गाँव में रहने के बाद मैं वापस शहर आ गया।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे और दूर जाना पड़ा। नयी जगह और नए दोस्तों में मन कुछ ऐसा रम गया था कि और कुछ याद ही नहीं रहा। देर रात तक जगे रहना और सुबह देर से उठना अब आदत सी हो गई थी। इस दौरान दोस्तों के साथ बहुत सी नयी जगहों पर घूमने गया। इस सामाजिक जिंदगी का भी अपना ही मजा था। कॉलेज में ये साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। पढाई पूरी होने के बाद जब नौकरी लग गयी तो व्यस्तता अचानक से ही कुछ इतनी अधिक हो गई कि कुछ और करने के लिए समय ही नही मिलता था। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर बस इतना सा जीवन रह गया था। घर में कुछ देर समय मिलने पर बुद्धू बक्से (कंप्यूटर) के आगे बैठ जाता था और उसी में समय बीत जाता था। सब कुछ इतना नीरस सा हो जायेगा ये नहीं सोचा था। चार-पाँच साल तक जिंदगी ऐसे ही चलती रही। बहुत दिन से इस माहौल से थोड़े समय के लिए निकलने का मन था और आखिरकार मैंने घर जाने के लिए छुट्टी ली।

छुट्टी मिलने पर कुछ दिन के लिए गाँव गया। इस बार बहुत दिन के बाद गाँव आना हुआ था। जब नदी को देखने को गया तो देखा कि जो पहले रेत के टीले कहीं कहीं पर थे वो अब बड़े होकर नदी के एक किनारे से लेकर नदी के बीच तक फैल गए थे। नदी दूसरे आधे हिस्से में सिमट कर रह गई गई थी। नदी के बीचों-बीच जहाँ पहले जहाँ पहले सीने तक पानी हुआ करता था वहाँ आज बिलकुल पानी नहीं था, सिर्फ बालू था। वहाँ  से कुछ दूर नदी सकुची-सिमटी सी बह रही थी। नदी का दम घुट रहा था। लोगों की उम्मीदों का बोझ उससे और नहीं सहा जा रह था। जैसे मेरे जीवन में नयेपन का अभाव था वैसे ही नदी भी बस चुपचाप जी रही थी। उस पल ऐसा लगा जैसे कि मेरे जीवन और नदी, दोनों का प्रवाह थम सा गया है। 


"Bharat Mata ki Jai!" How many times have you said that? "..I love my country and I am proud of its rich and varied heritage. I shall always strive to be worthy of it.." How many times did you take that pledge? How many times have you stood in attention to sing the National Anthem? How many times have you read the news that India won in any sport event? How many times have you thought that why do we need to feel 'Indian' only on '15th August' or '26th January'? Probably many times. That said, but how many times have you felt the flow of emotions through your nerves and veins when you said "I am proud to be an Indian?" How many times you felt that sheer happiness coming through, that sense of belonging, that sense of involvement in every phase that the nation undergoes? You may have pondered on that or you may not have given a thought at all. Whatever might be your answer, this is the right time to think what Independence really means to us and to think whether we are really free in our country.

Let us see the contemporary India. A Professor is booked because he shared a cartoon mocking a Chief Minister. A farmer is branded Maoist and booked under different sections of IPC, just because he said to a CM that her promises were not being fulfilled. Where is the Right of Expression? Ethnic clashes erupt in one part of the country and entire north-east is cut-off from India. A section gathers in another part of the country to protest those clashes. That protest turns violent leading to the loss of life and of public and private property. States fight over safety of a dam and also on their share of the water from a river. Maoists create so called free zones and when security personal enter those zones they become an easy target. Allegations of large scale corruption have become so common that they aren't any breaking news now. Growth rate of the country is at its lowest in last ten years. Prime Minister, a seasoned economist accredited for the liberalization of the Indian economy, and his colleagues promise every day to improve the situation, but to no avail. There are looming threats of downgrading by rating agencies just because they say that our government is corrupt and indecisive. Houses of Parliament are adjourned on big and small issues, as if adjournment is a solution to anything. Large scale protests are carried out against corruption, even though no one is listening to them. Terrorists cross borders and carry out attacks like one in Mumbai in 2008 and even after four years we could neither bring the perpetrators under trial nor there do exist any guarantee that such incidents will not happen in future.


What Independence Day Means

When we gained Independence there were problems like demand of new states, water-sharing between states, demands based on ethnicity and languages, economic challenges etc. After sixty five years of the Independence these problems still persist. You can hear the voices being raised in different parts of the country for creation of new states and sometimes those voices take violent forms. So one might be tempted to think what we have achieved on these fronts which have a potential to cause problems in future also. Only a solution to all these issues can bring independence in real sense to a large part of the country.

So when you say again "Bharat Mata Ki Jai", just think for a moment that how can we be the part of the solution? How can we contribute to the growth of the Nation? That contribution will be the real celebration of Independence Day.

Where the world has not been broken up into fragments 
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way 
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee 
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
-Rabindranath Tagore




There is a pleasure in the pathless woods,
There is a rupture on the lonely shore,
There is society, where none intrudes.
By the deep sea, and music in its roars;
I love not man the less, but nature more.
- George Gordon 

They say that Himalayas were created by some tectonic activity (collision of tectonic plates and gradual uplift of landmass, something like that). Although I am a rationalist, but sometimes I really doubt the theories that say that Himalayas are a creation of tectonic activities. What puzzles me is how can such events create something so beautiful. It seems to me that Himalayas are the artistic work of God’s own hands. He must have taken too much pain to design the hills and mountains; and then make them a reality. First of all, He would have created the mountains by hammer-and-chisel work on the rocky mass. He would have produced all the heights possible. He must have looked from all the angles to ensure the perfection. Then He would have laid the lush green blanket over the whole area. Then He would have planted the pine and oak trees, careful to leave perfect spaces between them. In the protection of the pine trees, all types of vegetation grew. Then He would have created the fountains and falls at appropriate places. Then He would have created rivers whose meanders were designed to match the pattern of spaces between hills. Then he looked at his work and was satisfied with that but then suddenly He thought something is missing. Then he covered the higher peaks with snow caps to give them a finishing touch. This is how I think Himalayas were formed.

I have traveled Haridwar, Hrishikesh, Neelkanth, Shimla, Nainital, Mussoorie and Dhanaulti; and have explored the beauty of Shivalik range of Himalayas, but deep within, there was an ardent desire to see the snow in Himalayas, to touch it and to feel it. You can see snow-capped mountains while going to Dhanaulti from Mussoorie (view of Nanda Devi on a day with clear sky) and also while going to Nainital but these views were from a significant distance and I wanted to have those peaks close enough. So, it was planned that we will go to Manali to experience snowfall. Luckily this year, Uttarakhand  also experienced heavy snowfall and after some thought it was decided that we will go to Chopta in Rudraprayag district, which is situated on the way to Kedarnath.

The most adventurous part of going to a hilly area is the travelling itself. Curvy roads on the mountains have a wall of rock on one side and deep gorges on the other side, sometimes so high that it is a daring task even for a normal person to see into that gorge, leave alone an acrophobic person. These heights make the journey more adventurous. I still remember once, while returning from Mussoorie, the careless bus driver made everyone shiver on few occasions. From one side of the valley, the roads on the other side of the valley, occupying tiny portion of the huge mountains, look like a crawling snake - so narrow yet so long. The vehicles on those roads look so small that they remind us of the toy cars that we played with during our childhood days. The sweet sound of the river flowing in the valley never stopped during our journey of around 200 km.

We started our trip from Hrishikesh along the river Ganga. Initially the roads were less difficult to drive but the driver should refrain from seeing the beautiful landscape for his own safety. Parallel to the road, down in the valley, the river was on an endless journey on the pebbles with the 'kal-kal' sound. The steep mountains with random shapes and random heights looked very beautiful. We felt cold air whenever mountains deprived us of the sunlight. The journey continued like this for 70 km till we reached Devprayag, where Bhagirathi and Alakananda merge to form Ganga. Prayag is a place where two rivers merge. In Uttarakhand, you will find many ‘Prayags’- Devprayag, Rudraprayag, Karnaprayag etc. From the road, we could see that a dark-greenish clean stream met with a stream comparatively rich in silt and after they merged, Ganga was formed. From Devprayag, we took our road alongside Alakananda. After every 5 to 10 km of travel we met small villages having tea shops along the roads, few houses on the slopes and step farms covering the hills. Then came Srinagar, the largest town and widest valley in Garhwal hills (Not to be confused with Srinagar of Kashmir). Here we could see from a distance a dam under construction. Many miles after, we arrived in Rudraprayag, the meeting point of rivers Alakananda and Mandakini. After travelling further 45 km, we reached Ukhimath and it was already dark by that time and we decided to stay in Ukhimath. One must come prepared to tolerate the extreme temperatures.

Next day, I woke up early in the morning to see the sunrise. The town of Guptkashi could be seen, on the other side of the river Mandakini. The town looked close, but it was at a distance of 12 km. In the morning everything looked fresh, as fresh as it could have been. All the peaks visible from the lawns of guest house of Garhwal Mandal Vikas Nigam (we stayed there) were covered with snow which made me feel like ‘Ab Delhi door nahi’. When I raised my head a little, I found something static in the moving clouds. Yes, it was the snowy peak and it looked more beautiful with reddish sunlight of morning falling on it. It seemed that it was looking us from the windows made up of clouds. Starting from the bottom of the hill, there were green deodar and oak trees whose length decreased with increasing height. Then there were white patches midway to the top. The white patches grew in size and ultimately took over everything at the top of the hill. That hill marked the starting of the Himachal ranges on that route.

After that we left for Deoria Tal, situated at a distance of 14 km from Ukhimath. There was a diversion where one road went to Devariya Tal and other went to Chopta. We took the one going to Deoria Tal. On our way to Deoria Tal, we found snow for the first time, which was the purpose of this whole trip. First experience of everything is hard to forget. We reached Sari after which we have to leave vehicles and start the 2.5 km long trek to the hill top.  The way to the top was quite steep and for some time the physical exertion made us forget the cold. Halfway through, we found plenty of snow, thus making the way slippery. We tossed the snow balls towards each other, made interesting shapes from the snow mass. It was such a fun. With increasing height, it became more slippery and snow had covered the whole path. Trekking like this, finally we reached Deoria Tal and to our delight, as soon as we reached there, snowfall started.

This snowfall was a unique experience. Wherever we could see, there was snow and only snow - Snow up to knees and snow falling from above. The fairy tale ‘Snow White and the Seven Dwarves’ must have been set up at a similar place. In this fairy tale, the Princess had her skin as white as snow. That alone is sufficient to describe the fairness of snow. When we arrived there we could see green trees but slowly they were getting snow-laden and only stem was visible. We jumped, ran, played with snow, posed for photographs – in short we did all the juvenile activities. Only place which was not covered with snow was the lake or Tal. As soon the snow touched the lake surface, it melted and disappeared in the water, although we expected that it will maintain it’s solid form for some time.  This small lake finds mention in ancient mythological stories. It is believed to be the "Indra Sarovar" where Pandavas were asked questions by Yaksha. Around the lake was smoothly inclined plane which was covered with 2 to 3 feet of snow. Snow-covered Chaukhambha peaks could not be seen from Tal because snowfall did not let us see anything at a distance. After enjoying so much, we started the return journey, but now the way was all the more slippery. When we reached Sari, our base camp, it was raining heavily. It was difficult to drive in rainfall and we abandoned our plans to visit Chopta.

deoria tal


snowfall in deoria tal

I don't remember when I fell in love with Himalayas or nature, in general, but one thing I know is that this love has grown profounder with time.  I don't know what fascinates me most, the hills, the rivers, the falls, the forests or everything as a whole and that makes me believe in 'few-things-can't-be-described-in-words.' Every time on a peak, I look upon other peaks from there, I feel on top of the world. That view is so relaxing, so soothing to eyes that nothing else can match that. The reflection of sunlight against the distant snow-laden peaks seems so dazzling. Sometimes clouds pass by giving a cold touch and when you look below you find that you are actually in the clouds! (Similar incident might have been the inspiration behind the phrase 'On Cloud Nine' meaning 'In a state of blissful happiness').  One, who has seen clouds whispering to the hill tops during the day and peaks trying to kiss the stars at night with moon behind the mountains trying to emphasize that kiss, has something so everlasting in his mind that he wants to see that again and again. The sweet sound of a moving river, small attractive villages here and there and green step farms, everything was justifying its presence. Slowly when I raised my eyes I  saw valleys, then green fields, rivers, more peaks and then peaks merged in clouds, after that there were clouds only, nothing else. For a moment, my eyes kept wandering in those clouds.

For oft, when on my couch I lie
In vacant or in pensive mood,
They flash upon that inward eye
Which is the bliss of solitude;
And then my heart with pleasure fills,
And dances with the daffodils. 
-William Wordsworth