उन्हीं बदनाम गलियों मे आना जाना है फिर से
वहाँ ज़िक्र-ए-यार होता है तो उठती है लहर कोई। 

अंजुमन मे ज़ाहिर होने के डर से चुप हैं वो
वो जिन्हें डरा ना सका था ज़माने का डर कोई। 

बस इतनी सी उम्मीद से साथ पाने की कोशिश थी
कि उन्हें भी पसंद आ जाता नाचीज़ का हुनर कोई। 

उनके ख़याल मे गुज़री है तमाम शब अब तक
कभी खुद के लिए बचा के रख लेते सहर कोई। 

दवा-औ-दुआ-औ-दारू नाकाम थे सब के सब
ये फ़ासला जाने कर गया मुझ पर असर कोई। 

गुमशुदगी की हद तक खो गये हैं वो अब तो
शायद मिल गये उनको भी नये हमसफ़र कोई। 

चंद यादों के सहारे जी रहा हूँ अब तो यायावर
एक अरसे से दीदार ना हुआ मयस्सर कोई। 


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