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Jan 20, 2014

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

बंद कमरे की हवा भी
बहुत अजीब होती है
इसके पास दुनिया की
आख़िर कौन सी
सुख-सुविधा नहीं है
आयातित खुश्बुओं से
इसे सुगंधित किया जाता है
वातानुकूलक से इसे शीतल रखा जाता है
दिन रात चलते पंखे
इसके अकेलेपन को चीरते रहते हैं
ये बाहर की सर्दी, गर्मी,
बारिश, लू के थपेड़ों से,
आवारा आँधी तूफ़ानों से
बच के रहती है।

फिर भी ना जाने
क्या कमी सी रह गयी है
बंद कमरे की हवा का
बंद कमरे में मन लगता ही नहीं;
पारदर्शी खिड़कियों से
जब देखो तब
बाहर निहारा करती है,
बार बार पर्दे खोलकर
कमरे के बाहर के नज़ारे लिया करती है,
अफवाहें तो कुछ ऐसी भी थी कि
बंद कमरे की हवा
बाहर की खुली हवा से
दरवाजे के नीचे से छुप छुप के
बातें भी करती थी।

कमरे का माहौल ही कुछ ऐसा था,
दीवारों पर टँगे हुए मूक चित्रों से,
या नीरस जलते हुए बिजली के लट्टुओं से;
गंभीरता की हदें पार करते झाड़-फानूसों से,
या मेज के एकटक घूरते हुए नकली फूलों से;
बंद कमरे की हवा बात करे भी तो किससे
आख़िर कमरे के अन्य निवासियों में
बाहर की दुनिया देखी भी थी तो किसने?

जब कभी दरवाजा ज़रा भी खुलता था
तो बंद कमरे की हवा
लपक कर निकल उठती थी;
दोगुने उत्साह से
बाहर की खुली हवा से
गले मिलती थी
ऐसे लगता था जैसे
इसकी सदियों की मुराद
आज पूरी हो गयी हो
और मन बरबस कह उठता था
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।

1 comment:

  1. This should have gone viral by now.. ur best work I have seen

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