कहानी लिखना शुरू करने के पहले ही
कहानी के अंत के बारे में सोचता हूँ
सोचता हूँ कि मैं कैसे इसके अंत को
अधिक प्रभावशाली बनाऊँ
और लोग कहते भी तो बस इतना हैं
कि फलां कहानी के आखिर के
दो-तीन अनुच्छेद बहुत अच्छे थे
सिर्फ आखिरी पन्ना पढ़ के
कहानी का मज़मून भांप लेने की
लोगों की आदत भी तो जाती नहीं
तो मैंने भी सोचा कि अगली कहानी का अंत
थोड़ा दमदार बनाया जायेगा।
कहानी का अंत दुखद हो तो
थोड़ा वास्तविक लगता है
वैसे भी जीवन में
ज्यादातर कहानियों के अंत ऐसे ही होते हैं
दुखद अंत होने पर पाठक को
झकझोर भी सकता हूँ
सोचने पर मजबूर भी कर सकता हूँ
और यह भी भरोसा रहता है कि
साहित्य के समालोचकों से
दो-चार शाबाशी के शब्द
कुछ तालियां भी मिल ही जायेंगी
कि इस कहानी में जीवन की सच्चाइयों का मार्मिक चित्रण है
फिर सोचता हूँ कि
जीवन से जूझते जूझते
अगर किताबों में भी वही संघर्ष वही लड़ाई मिलेगी
तो पाठक कहानी के अंत में क्या नया पायेगा
जो जीवन है वही कहानी है।
तब मैं सोचता हूँ कि
कहानी का अंत सुखद होना चाहिए
मानता हूँ कि ये थोड़ा वास्तविकता से परे होगा
लेकिन क्यों न पाठक को
कुछ देर के लिए ही सही
कल्पना की दुनिया में ले जाया जाए
सितारों को जमीन से मिलाया जाये
कहानी का मज़ा तब होगा
जब वो दुखों को कुछ देर के लिए ही सही
लेकिन भूल जाये
फिर सोचता हूँ कि
कल्पनाओं में जीने के बाद सच्चाई से
रूबरू होने पर
दुःख आदमी को और ज्यादा दुखी करते हैं
कहानी का उद्देश्य यह नहीं होना चाहिए
कि यह कुछ कराये न कराये
बस सपने दिखाए
कहानी का लक्ष्य तब पूरा होगा जब
उसमे खुद का अक्स नज़र आये ।
तब मन में तीसरा ख्याल आता है
कि कहानी को मध्यमार्गी बनाया जाये
थोड़ा सुख थोड़ा दुःख मिलाया जाये
सबको दोनों से थोड़ा थोड़ा परिचित कराया जाये
तब मन में विद्रोह के स्वर उभर आते हैं
कि ये कहानी कोई कूटनीति का मैदान थोड़े ही है
जहाँ पर दोनों पक्षों को खुश करने से
मेरी सफलता का आंकलन होगा
कि ये कोरा कागज़ कोई वो जगह तो नहीं है
जहाँ मैं समझौते के बीज बोऊंगा
मैं लिखूंगा तो अपने मन की बात लिखूंगा
और मैं फिर से वहीं आ जाता हूँ
जहाँ से हर बार शुरू करता हूँ
फिर से कलम कहानी की शुरुआत के लिए प्रयासरत है
और मन कहानी के अंत में व्यस्त है ।