आपने उस भजन की ये दो पंक्तियाँ सुनी होंगी कि 'जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह ना जाए।' अब धरा की बात तो छोड़ दीजिए चिराग तले ही अंधेरा होता है। कभी आपने सोचा है कि चिराग तले अंधेरा क्यों होता है? दिया जलने से पहले और उसके बुझने के बाद भी अगर कोई चीज़ स्थाई रहती है तो वो है अंधेरा। तो फिर दिया जलाते ही क्यों हैं? दिया इसलिए जलाया जाता है कि भले ही अंधेरा ताकतवर हो, स्थाई हो लेकिन उस से लड़ना तो होगा ही। और हमेशा लड़ते रहना होगा क्योंकि अंधेरे को कुछ क्षणों के लिए पराजित तो किया जा सकता है लेकिन उसका जड़ से उन्मूलन नहीं किया जा सकता। हम दिया जलाकर अपने इस निश्चय के प्रति प्रतिबद्धता जताते हैं कि हम अंधेरे से लड़ते ही रहेंगे।
तामसिक और सात्विक प्रवृत्तियों की इस लड़ाई में तामसिक प्रवृत्तियों का पलड़ा भारी है ऐसा कहने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की कालजयी रचना 'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं' अवश्य पढ़ी होगी। अगर नही पढ़ी है तो पढ़िएगा। इसमें द्विवेदी जी से एक छोटी बच्ची पूंछ बैठती है कि नाख़ून क्यों बढ़ते हैं। द्विवेदी जी इस सवाल पर बहुत सोचते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नाख़ून पाशविक प्रवृत्तियों का प्रतीक हैं और मनुष्य को हमेशा याद दिलाते हैं कि पहले वो पशु था। मनुष्य नाख़ून को काटकर इस तथ्य को झुठलाने की कोशिश करता है लेकिन नाख़ून दोबारा बढ़ आते हैं। और इस द्वंद में मनुष्य को हमेशा लड़ते रहना होगा। वो कभी भी पाशविक प्रवृत्तियों को हावी नहीं होने दे सकता और न ही कभी यह मानकर बैठ सकता है कि पाशविक प्रवृत्तियाँ समाप्त हो गई हैं।
मैं और उदाहरण देता हूँ। हम हर वर्ष विजयादशमी पर बुराई रूपी रावण पर अच्छाई रूपी राम की जीत का उत्सव मनाते हैं। हम दीपावली पर दिये जलाकर अंधकार पर प्रकाश की जीत की खुशियाँ मनाते हैं। लेकिन हर वर्ष क्यों? हम यह मानकर बैठ क्यों नहीं जाते कि अच्छाई सदा के लिए जीत गई है या प्रकाश हमेशा के लिए अंधकार पर हावी हो गया है। क्योंकि हम यह जानते हैं कि यह जीत, यह उल्लास क्षणिक है। क्योंकि हम यह जानते हैं कि तम ही टिकाऊ है। और इसको झुठलाने के लिए हम बार बार लड़ते रहते हैं। आपने देखा होगा, सुना होगा कि संत महात्मा लोगों को सही राह पर चलने का उपदेश दिया करते हैं। और ऐसा वो सदियों से करते आ रहे हैं। मनुष्य को सही राह पर लाने में हज़ारों वर्ष लग गये और अब भी यह नहीं माना जा सकता कि वह सही राह पर आ गया है क्योंकि उनका उपदेश अब भी जारी है। तो महापुरुष हमेशा प्रयत्नशील रहे हैं कि मनुष्य दुर्व्यसनों को छोड़कर सदाचारी जीवन व्यतीत करे लेकिन तामसिक प्रवृत्तियाँ रह रह के हावी हो जाती हैं। अगर यहाँ पर विज्ञान को ले आया जाए तो यह स्वाभाविक हो जाएगा कि कोई भी वस्तु हमेशा उच्च क्षमता से निम्न क्षमता की ओर ही बहती है और निम्न क्षमता से उच्च क्षमता से जाने के लिए कार्य करना पड़ता है।
अब सवाल यह उठता है कि तामसिक प्रवृत्तियाँ स्थाई क्यों होती हैं और सात्विक प्रवृत्तियाँ क्षणभन्गुर क्यों। इसका जवाब है प्रयत्न। कभी भी यथास्थिति को बदलने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है और प्रकृति के हर तत्व का गुण होता है यथास्थिति बनाए रखना अर्थात प्रयत्न ना करना। अंधेरे को चीरने के लिए लौ को प्रयत्न करना ही पड़ता है। उर्जा भी चाहिए होती है। अगर आप डार्विनवाद को मानते हैं तो आप भी मानेंगे कि अगर मनुष्य में जिजीविषा ना होती तो मनुष्य भी इतिहास में कहीं अदृश्य हो गया होता या आज भी बंदर होता लेकिन मनुष्य ने विकास के लिए प्रयत्न किया। और जब यही प्रयत्न बंद हो जाता है तो मनुष्य तामसिक गुणों का शिकार हो जाता है क्योंकि उसके लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं पड़ती।
लेकिन प्रयत्न किया ही क्यों जाए? जवाब है आनंद की अनुभूति। सोच के देखिए कोलम्बस को नयी दुनिया खोज कर कितना आनंद आया होगा या चाँद पर पहला कदम रखते हुए नील आर्मस्ट्रॉंग को कितनी खुशी हुई होगी। न्यूटन ने सेब गिरते हुए देखकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की ही खोज कर दी। चाहते तो वो भी मनुष्य के पूर्वज बंदरों की भाँति सेब खाकर बगीचे में आराम फरमाते रहते। विश्वास कीजिएगा तामसिक प्रवृत्तियों मे क्षणिक आनंद आ सकता है पर सात्विक तरीके से पाया हुआ कुछ भी अत्यधिक आनंददायी होता है। मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ कि उसे पाना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।
और जब बात जलने की होती है तो मुझे अपने एक शिक्षक की बात याद आ जाती है जो कि उन्होंने हम लोगों से लगभग एक दशक पहले कही थी कि अंतिम विजय ही विजय होती है। मैं उनकी पंक्तियों को ही उद्धृत कर देता हूँ, "एक बात हमेशा याद रखना कि जलते दोनों हैं। जलते दोनों हैं मगर एक जल कर बुझता है और एक बुझकर जलता है। लेकिन दुनिया उसे ही याद रखती है जो बुझकर जलता है।"