सुबह से शाम तक रोज़ी-रोटी की कहानी
दो पल में बीत गयी चार दिन की ज़िंदगानी

कुछ इस तरह भूला है खुदा मेरा मुझको जैसे
एहसान किया देकर चार दिन की ज़िंदगानी

कुछ ख्वाब में बीती तो कुछ बिना बात में
मेरे काम आई ना तेरे चार दिन की ज़िंदगानी

एक ही ढर्रे पर चल रही थी कई ज़िंदगियाँ
रवायत सी बन गई चार दिन की ज़िंदगानी

रोज अगले दिन की तैयारी में बीत गयी
'आज' मिली ही नहीं चार दिन की ज़िंदगानी

पहचान को तरसती रही कसमसाती रही
लेकिन चलती रही चार दिन की ज़िंदगानी

पीछे मुड़कर देखा तो सहसा याद आया कि
आगे दौड़ी जा रही थी चार दिन की ज़िंदगानी

महलों में गुज़री किसी की सड़कों पर लेकिन
बराबर मिली सबको चार दिन की ज़िंदगानी

क़ाबिल-ए-बयाँ कहाँ थे यायावर के सुखन
ज़िंदगी खोजती रही चार दिन की ज़िंदगानी


2 Comments

  1. चार दिन की जिंदगानी मे बितालुन मै ज़िंदगी, ना जाने कब मिलेगी फिर से चार दिन की जिंदगानी!! बहुत खूब लिखा है तिवारी जी

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  2. आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा,आपकी रचना बहुत अच्छी और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिश करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग www.gyanipandit.com पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें

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