Pages

Aug 27, 2015

क्योंकि तुम जिंदा हो

कल रात मन-सत्ता शून्य में विलीन
अवचेतन वृत्तिहीन सुख-दुःख हीन
क्यों न इस बात पर हो चिंतन-मंथन
गीत का उद्द्येश्य सोच रहा अकिंचन
महलों में गाये जाने को क्यों ये गीत
दरबारी कविता को क्यों मानूं मैं गीत 
विलास पर गीत करे क्यों अभिमान
मंदिरों में क्यों गाया जाये यह गान
पराजित के मन में आग लगा दे जो
सुप्त जन-मानस को आज जगा दे जो
समर में चिंगारी धधक जला दे जो 
अधरों पर आये तो सत्ता-शीर्ष हिला दे जो
लड़ जाने का हो जिसमें प्रकट सन्देश
दूर रहे जहाँ शांति का मिथ्या उपदेश
जहाँ न बहता हो रक्त रगों में पर आग
रणभेरी बजे, हर स्वर गाये वह वीर राग
धराशायी को द्वन्द-मध्य उठा दे गीत
इतना सब हो तब मानूं मैं कि वह गीत
क्षमाप्रार्थी नहीं मैं, हो यदि तो निंदा हो 
किसी को खुश करने के लिए नहीं
लिखो इसलिए क्योंकि तुम जिंदा हो। 

नायिकाओं पर बिक गए कितने शब्द
व्यंजनाओं पर मिट गए कितने शब्द
चेहरे को फूल और आँखों को हिरन 
तन की खुशबू को कहा पुरवा पवन
केश-विस्तार को बादल कह गये गीत
सौंदर्य पर शब्द-निधि लुटा गये गीत
कोई बताये कि इलाहबाद के पथ पर 
कितने शब्द उस पर जो तोड़ती पत्थर
समर्थों के विशेष प्रिय विषय प्रेम पर
नाना प्रणय-गीत बने शब्द जोड़कर 
कोई बताये कि नित लकड़ी तोड़कर
सोलह बरस की आयु में माँ बनकर,
जीने वालों पर क्यों गीत बने किंचित
सत्ता की तरह साहित्य से भी वंचित
सुन्दर ही क्यों सत्य भी तो हो गीत 
अधरों तक ही क्यों मन तक जाये गीत
जागृत कर दे, ऐसा शब्द चुनिन्दा हो
तालियों की गड़गड़ाहट के लिए नहीं
लिखो इसलिए क्योंकि तुम जिंदा हो। 

नयी-पुरानी कविता के जंजाल से मुक्त
तुकांत मुक्त-छंद द्वन्द जाल से मुक्त
शब्द छपास के रोग निवारण हेतु नहीं
शब्द किसी हितपूर्ति के साधन हेतु नहीं 
साहित्य की साधन समाज साधना हो 
प्राणिमात्र की ही ईष्ट की आराधना हो 
साहित्य के नवांकुरों से है ये आह्वान
सफल करें यज्ञ आहुति देकर निज-प्राण
साहित्य हो तो समाज का मुकुर हो
अन्याय के प्रति हो तो क्रोध प्रचुर हो 
नायक-द्वय का संयोग-वियोग अब बस
रूपक यमक श्लेष के प्रयोग अब बस
अलंकृत न भी हो शब्द, बस जिंदा हो
कैसी भी लोकप्रियता के लिए नहीं 
लिखो इसलिए क्योंकि तुम जिंदा हो। 

No comments:

Post a Comment