'आषाढ़ का एक दिन' हिंदी के युगान्तरकारी नाटककारों में से एक मोहन राकेश जी की एक कृति है। इस नाटक को हिंदी साहित्य में इसलिए जाना जाता है क्योंकि इस नाटक से हिंदी रंगमंच में यथार्थवाद की उस समय नयी परम्परा को एक बहुत मजबूत प्रोत्साहन मिला। पुस्तक के प्रारम्भ में ही मोहन राकेश जी ने कहा है कि हिंदी रंगमंच पाश्चात्य रंगमंच से अत्यधिक भिन्न है। हमारे पास उपलब्धियों को देखने के लिए पाश्चात्य रंगमंच ही है क्योंकि हिंदी रंगमंच किसी एक विचार विशेष से बंधा हुआ नहीं है। राकेश जी ने हिंदी रंगमंच के उद्देश्य को भी परिभाषित करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की दैनिक आवश्यकताओं और उनकी सांस्कृतिक महत्ताओं को अभिव्यक्त करने वाला होना चाहिए और ऐसा पाश्चात्य रंगमंच की अंधाधुंध तरीके से नक़ल करने से संभव नहीं है। और लेखक की इस बात के लिए सराहना होनी चाहिए कि इस भाव की अभिव्यक्ति के लिए कालिदास को कथानक में सम्मिलित किया गया है, जो कि अपने आप में स्वयं बहुत बड़े नाटककार थे।

मोहन राकेश द्वारा रचित 'आषाढ़ का एक दिन'
नाटक का कथानक कालिदास और उनकी बचपन की प्रेमिका मल्लिका के इर्द-गिर्द घूमता है। विलोम कालिदास का स्वघोषित मित्र है और कुछ आलोचनात्मक समीक्षाओं में उसे इस नाटक का खलनायक भी कहा जा सकता है लेकिन अगर उसे खलनायक कहकर छोड़ दिया जायेगा तो इस पात्र के विकास को कम करके आंकना होगा। विलोम को स्थान-स्थान पर उलाहना का भी सामना करना पड़ा है और समय-समय पर नायक के आदर्शवाद को दिखाने के लिए भी विलोम का प्रयोग किया गया है। ऐसा कहा जा सकता है कि इस नाटक में कालिदास आदर्शवाद के प्रतीक हैं और यथार्थवाद से उनकी कशमकश का बाक़ी पात्रों पर पड़ते हुए प्रभाव को राकेश जी ने बखूबी दर्शाया है। वहीँ दूसरी ओर विलोम को यथार्थवाद का प्रतीक माना जा सकता है। उसकी बातें और उसके द्वारा उठाये गए कदम समाज की चलती हुई परिपाटी द्वारा प्रमाणित कदम माने जा सकते हैं और परिस्थितियों के आगे विवश होकर मल्लिका को भी अंत में यथार्थ के आगे नतमस्तक होना ही पड़ता है।

नाटक पढ़ते समय या देखते समय (हालांकि मैं इतना भाग्यशाली नहीं रहा हूँ) आपको यह लग सकता है कि इसके कुछ पात्र सर्वथा अनावश्यक थे। आपकी यह धारणा अनुस्वार और अनुनासिक द्वय के बारे में हो सकती है, संगिनी और रंगिणी के बारे में या निक्षेप के बारे में भी हो सकती है। यदि गंभीरता से सोचा जाये तो यह दिखाई पड़ेगा नाटक का हर एक पात्र राकेश जी ने बहुत सोच समझकर और अत्यन्त सटीक जगह पर रखा है। अनुस्वार और अनुनासिक की बौद्धिक क्षमता को एक वार्तालाप के द्वारा दर्शाया गया है और जब बाद में मल्लिका को उनमें से एक चुनने को कहा जाता है तो यह साफ़ दिखता है कि राजबल कभी सामान्य मनुष्य की भावना का सम्मान नहीं जानता। वह हर एक प्राणी को किसी बड़े ढांचे की सिर्फ एक इकाई के रूप में देख सकता है। संगिनी और रंगिणी वह सब देख पाने में असमर्थ थी जिसको देखने के लिए वह ग्राम्यप्रदेश में आई थी जबकि उन्हीं दृश्यों को देखकर कालिदास महाकवि बन गए थे। कभी कभी हम किसी चीज की कल्पना इस तरह से कर लेते हैं कि जब वह चीज साक्षात् प्रकट हो तो विश्वास करना ही मुश्किल ही जाता है। कुछ ऐसा ही संगिनी और रंगिणी के मल्लिका के साथ संवाद के द्वारा दिखने की कोशिश की गई है।

अगर यह कहा जाये कि इस नाटक का नायक कालिदास न होकर मल्लिका थी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस नाटक को हिंदी साहित्य के कुछ शुरुआती स्त्री-प्रधान रचनाओं में जगह दी जा सकती है। तृतीय अंक में कालिदास के संवाद, जहाँ उन्होंने अपने मानसिक द्वंद्व का चित्रण किया है, भी कथानक की स्त्री प्रधानता को कम नहीं कर सके। मल्लिका का चित्रण एक स्वतंत्र, आत्म-निर्भर, विचारशील, आधुनिक और निर्णायक नारी के रूप में हुआ है। मल्लिका कहती भी है - 
"मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है...।"
कालिदास को इतना अधिक चाहते हुए भी मल्लिका ने कभी भी अपने आप को कालिदास और उनकी उपलब्धियों के बीच में नहीं आने दिया। हालांकि मन में हमेशा एक शक्तिशाली इच्छा बनी रही जैसा की यहाँ देखा जा सकता है - 
".....सोचती थी तुम्हें 'मेघदूत' की पंक्तियाँ गा-गाकर सुनाऊँगी। पर्वत-शिखर से घण्टा-ध्वनियाँ गूँज उठेंगी और मैं अपनी यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूँगी....... कहूँगी कि देखो, ये तुम्हारी नई रचना के लिए हैं। ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बनाकर सिये हैं। इन पर तुम जब जो भी लिखोगे, उसमें मुझे अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूँ, मेरा भी कुछ है।"

नाटक के संवाद बहुत शक्तिशाली बन पड़े हैं। मल्लिका की मां अम्बिका, जो कि चाहती है कि मल्लिका विवाह करके एक सुखी जीवन व्यतीत करे, कहीं न कहीं कालिदास से चिढ़ती भी है भले ही यह वैचारिक स्तर पर ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए जब कालिदास के पास राजकवि बनने का प्रस्ताव आता है और वो ना-नुकुर करते हैं तो वह कहती है- "सम्मान प्राप्त होने सम्मान के प्रति प्रकट की गयी उदासीनता व्यक्ति के महत्व को बढ़ा देती है। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि तुम्हारा भागिनेय लोकनीति में निष्णात् है। बाद में जब कालिदास की पत्नी उसके भौतिक कष्टों को कम करने का प्रस्ताव देती है तो अम्बिका का कहना होता है- ... इन्हीं में न कहती थीं उसके अंतर की कोमलता साकार हो उठी है? आज इस कोमलता का एक और भी साकार रूप देख लिया। ....आज वह तुम्हें तुम्हारी भावना का मूल्य देना चाहता है, तो क्यों नहीं स्वीकार कर लेती।" इस कथन से अम्बिका की कालिदास के प्रति भावनाएँ स्पष्ट हैं। कालिदास राजधानी में बिठाये गये पलों को याद करते हुए कहते हैं - "लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रहकर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहां रहकर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था।"

इस नाटक में इतिहास के पुनरुत्थानवादी काव्य की झलक कहीं से भी देखने को नहीं मिलती। मोहन राकेश जी ने अपने आपको कालिदास और मल्लिका के प्रसंग तक सीमित रखा है। अनावश्यक रूप से संस्कृति का गुणगान इस नाटक में देखने को नहीं मिलता है। कहानी के लिहाज से भी यह अत्यंत सीमित और सार-गर्भित रचना कही जायेगी। पातंजलि के एक उल्लेख के अलावा कहीं भी लेखक ने पात्रों के ज्ञान को दर्शाने के लिए संदर्भों का सहारा नहीं लिया जिससे पूरे नाटक में गति बनी रही है। भाषा अत्यधिक संस्कृतिनिष्ठ नहीं है, पढ़ने पर प्रवाह बना रहता है। इस नाटक के मंचन देश- विदेश में हुये हैं जिनमें से कुछ प्रसिद्ध लोगों द्वारा अभिनीत और निर्देशित मंचनों के दृश्य इस पुस्तक में दिए गए हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हिंदी नाट्य रचनाओं में अवश्य रूचि जागनी चाहिए।


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