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Dec 7, 2015

पुस्तक समीक्षा : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित 'अरे यायावर रहेगा याद?'

एक बात की दुविधा है कि इस पुस्तक की समीक्षा करते समय इसे एक पुस्तक समीक्षा कहा जाये या एक यात्रा वृत्तांत कहा जाये। इसके पीछे कारण यह है कि इस पुस्तक को पढ़ते पढ़ते पाठक लगभग एक यात्रा ही कर लेता है, इतना सजीव चित्रण किया गया है। अज्ञेय जी का नाम हिंदी साहित्य की यात्रा-वृत्तांत विधा के अग्रणी लेखकों में लिया जाता है, जिसमें अन्य नाम है - राहुल सांकृत्यायन, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती आदि। भारती जी की 'ठेले पर हिमालय' जिसने पढ़ी हो भुला नहीं सकता। अज्ञेय जी का तो जीवन ही घुमक्कड़ी करते बीता है। भौतिकशास्त्र में पढ़ाई से लेकर सेना में नौकरी तक उन्होंने किया जिसमें उन्हें जीवन के विभिन्न आयामों, विभिन्न पहलुओं का ज्ञान हुआ और यह उनकी लेखनी में भी झलकता है।

'अज्ञेय' द्वारा रचित 'अरे यायावर रहेगा याद?'
'अरे यायावर रहेगा याद?' में आठ यात्रा वृत्तांत दिए गए हैं और सभी में पर्याप्त विविधता है। यात्राओं में असम, बंगाल, औरंगाबाद, कश्मीर, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के भूभागों का वर्णन तो है ही साथ ही साथ तमिलनाडु के अति प्राचीन मंदिरों के बारे में भी बताया गया है। विविधता की बात यही है कि पुस्तक की शुरुआत ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग में अवतरण से हुई, फिर बात हिमालय की दुर्गम झील में डेरा डालने की हुई और अंत हुआ एलोरा की गुफाओं में इतिहास खोजने की कोशिश से। पहला लेख जो 'परशुराम से तूरखम' है उसमें अग्येय जी ने यात्रा एक सैनिक के रूप में की थी जबकि 'किरणों की खोज में' उन्होंने भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी के रूप मे लिखा। अन्य कई लेख उन्होंने साधारण घुमक्कड़ के तौर पर लिखा ।

अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तान्तों में एक खास बात उनकी विश्वसनीयता होती है। पाठक को एक बार यही लगेगा कि वह अज्ञेय जी के साथ उन पहाड़ों में, उन नावों में घूम रहा है। अज्ञेय जी ने स्थानीय लोगों के साथ उनकी भाषा में बात करके कई स्थानों के बारे में प्रचलित किंवदंतियों के बारे में बताया है। साथ ही साथ आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष पहले पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाक़ों में बढ़ती हुई विभाजन की माँग का भी ज़मीनी तौर पर आँखों देखा हाल मिलता है। इसके साथ ही अज्ञेय जी को अपने क्षेत्र का भी ज्ञान है जैसा कि हमने 'किरणों की खोज में' में उनको भौतिकी के विभिन्न पहलुओं को छूते हुए देखा है ।

अज्ञेय जी ने एक लेख में पर्यटकों को ज़िम्मेदारियों का भी बोध कराया है। लाहौली लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति अभिमान और बाहर से आने वाले लोगों में उसके प्रति अनभिज्ञता का वर्णन अज्ञेय जे ने किया है। उन्होंने इस बात पर चिंता भी व्यक्त की है कि बाहर से आने वाले लोग किस प्रकार से नशा, व्यसन इत्यादि यहाँ पर लेकर आते हैं। माना कि पहाड़ी जनजातियाँ पर्यटकों की जीवन पद्धति के अनुसार विकसित नहीं हैं लेकिन उनमें विकृतियाँ तो नहीं हैं। बिगड़ती परस्थितियों से लेखक का साक्षात्कार कई बार हुआ जब उनके निरुद्देश्य विचरण को कुत्सित मानसिकता वाले लोगों ने अपने ढंग से समझने की कोशिश की।

अभी तक मैंने हिंदी में ललित निबंध शैली में ही ज्यादातर विचारोत्तेजक लेख पढ़े थे लेकिन इस बार यात्रा वृत्तांतों में कई विचार की सीमा को धकेलने वाली पंक्तियाँ मिलीं । उदहारण के लिए - 
यायावर पुरातत्वविद नहीं होते, न पुरातत्व उनके लिए स्वयं एक साध्य होता है, वह केवल दूसरों के संचित अनुभव के फल के रूप में महत्व रखता है। यह महत्व कम नहीं है, और यह कथन पुरातत्व की अवज्ञा तो कदापि नहीं है। तक्षशिला, नालंदा, सारनाथ ये नाम यायावर के शरीर में पुलक उत्पन्न करते हैं, किन्तु इसलिए नहीं कि ये खण्डहरों के नाम हैं, वरन इसलिए कि ये सांस्कृतिक विकास के समष्टि के अनुभव पर आधारित उन्नततर परिपाटियों के आविष्कार के कीर्ति-स्तम्भ हैं। अंततोगत्वा बात एक ही है, किंतु एक नहीं भी है। भेद आव्यन्तिक वस्तु का नहीं है, केवल दृष्टिकोण का है, वस्तु से व्यक्ति के सम्बन्ध का भेद है।

अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तांतों में पर्यावरण का, इतिहास का, साहित्य का चिंतन देखने को मिलता है। उन्होंने प्रचलित ऐतिहासिक गाथा को उपलब्ध प्राकृतिक अवरोधों से तौलने की कोशिश की है और सोचा है कि उस समय क्या हुआ होगा। अब यह चिंता सिर्फ ऐतिहासिक बातों तक ही सीमित हो ऐसा तो नहीं है। साहित्यिक चिंतन यथेष्ट है। बानगी के लिए - 
एक वह दिन था, जब कविता स्वाभाविक उद्रेक राह चलते को खींचता था और फक्कड़ कवियों की बानी सीधे लोक-ह्रदय में जाती थी; एक हमारा दिन है कि .. उस लोक ह्रदय के पास भी नहीं फटकते जो वास्तव में जीवन का मूल स्रोत है। क्योंकि जीवन का स्रोत घटना का स्रोत नहीं है, वह चेतना का स्रोत है। हमारी कविता बानी नहीं रही, लिखतम हो गई है ; ह्रदय तक नहीं जाती वरन एक मष्तिष्क की शिक्षा-दीक्षा के संस्कारों की नली से होकर कागद पर ढाली जाती है जहाँ से दूसरा मष्तिष्क उसे संस्कारों की नली से उसे फिर खींचता है ।

अज्ञेय जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। यात्रा वृत्तांत की शैली कहानीमय है। ऐसा लगता है जैसे अज्ञेय जी कोई कहानी कह रहे हैं, हम सब जिसके पात्र हैं और उत्सुकता से अपना भाग आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बीच बीच में अज्ञेय जी ने संस्कृत में सूक्तियाँ भी लिखी और हिंदी की कवितायें भी रचीं जो कि उतनी ही अच्छी हैं जितने अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तांत। मिसाल के तौर पर अज्ञेय जी की एक कविता का कुछ अंश यहाँ दिखाता हूँ -
एक बार फिर : रातें अँधियारी हो जाएँगी और दिन उदास,
पत्तियाँ पीली पड़ जाएँगी और तने जलमग्न होंगे,
बिच्छू और सांप के फूत्कारों में क्रोध बेबस हो उठेगा,
बाघ आठ को मार डालेगा
और पुजारी की बहू को झँझोड़ कर छोड़ जाएगा,
और कुँए के पास छः भेड़ों की अँतड़ियां सड़ती रहेंगी,
और मानवीय खोपड़ी के आयतन पर
गलगंडों का विस्तार विद्रूप हँसी हँसेगा !
एक बार फिर
लड़खड़ाते तरु-शिखरों, से युग-दर्शी आँखें
मटमैले प्लावन को हेरेंगी-
काल की भेदक व्यथा ही काल को पारदर्शी बना देगी
और झलकेगा एक स्वप्न, जिसमें
फेन का उफान, हैट जायेगा, और बेट वृक्षों की छड़ी-सी अँगुलियों से
रेशम के पालनों पर झूलते हुए उतरेंगे । 

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