'सूरज का सातवाँ घोड़ा' उपन्यास की भूमिका श्री अज्ञेय जी ने लिखी है और इस भूमिका में अज्ञेय जी ने कहा है कि वो भारती जी को जीनियस नहीं कहेंगे क्योंकि किसी को जीनियस कह देना उसकी विशेषज्ञता को एक भारी भरकम शब्द देकर उड़ा देना है। जीनियस क्या है हम जानते ही नहीं है, बस लक्षणों को ही जानते हैं जैसे - अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यवेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और - हाँ, - एक गहरी विनय। और अज्ञेय जी का मूल्यांकन है कि भारती जी में ये सब लक्षण विद्यमान हैं। प्रख्यात समकालीन लेखकों द्वारा अपने समकालीन लेखकों के लिए भूमिका या प्रस्तावना लिखना उस समय कम ही होता था, तथापि अज्ञेय जी ने भूमिका लिखना सहर्ष स्वीकार किया और भारती जी को हिंदी साहित्य का उगता हुआ सितारा बताया ।
'सूरज का सातवाँ घोड़ा' धर्मवीर भारती जी का एक प्रयोगात्मक और मौलिक उपन्यास है। प्रयोगात्मक इसलिए क्योंकि इसके बहुत से गुण परम्परागत हिंदी उपन्यासों से अलग थे मसलन कहानी में कम पात्रों का होना, उपन्यास का बहुत विशाल न होना, किसी पात्र के विकास के लिए बहुत अधिक समय और घटनाएं नहीं देना, शुरुआत में पृथक दिखने वाली कहानियों का आपस में सम्बन्ध होना, स्मृति पर आधारित पात्रों में पर्याप्त विविधता होना इत्यादि। मौलिक इसलिए क्योंकि जिस विधा में यह उपन्यास लिखा गया है वह समकालीन हिंदी साहित्य में कम देखने को मिलता है और, हितोपदेश और पंचतंत्र की कथा शैली की याद अधिक दिलाता है जैसे कि छोटी छोटी कहानियों के माध्यम से उपन्यास को आगे बढ़ाते रहना जबकि कहानी के पात्रों में और उनके द्वारा सुनाई गयी कहानियों में कोई प्रत्यक्ष कड़ी नहीं मिलती है जैसा कि हमने कादम्बरी में देखा है।
इस उपन्यास में निष्कर्षवादी कहानियाँ दी गई हैं। निष्कर्षवादी कहानियाँ क्या होती हैं, यह उपन्यास के प्रमुख पात्र माणिक मुल्ला ने समझाया है कि किसी कहानी को लिखने के पहले उसका निष्कर्ष मन में सोच लो। फिर पात्रों पर इतना अनुशासन होना चाहिए कि कहानी को उस सोचे हुए अंत की तरफ ले जाया जा सके। उपन्यास में प्रस्तुत कहानियों में जब अंत में निष्कर्ष पर चर्चा हुई है तो कई बार निष्कर्ष अत्यंत बनावटी लगे और ऐसा भी लगा कि कहानियों की बौद्धिक गहराई और साहित्यिक सुंदरता उन निष्कर्षों से हल्की हो चली है लेकिन शायद माणिक मुल्ला के पात्र को विकसित करने के लिए ऐसा आवश्यक रहा हो।
माणिक मुल्ला के माध्यम से भारती जी ने प्रेम में यथार्थवाद पर बल दिया है। माणिक मुल्ला कहते हैं कि प्रेम आर्थिक परिस्थितियों से अनुशाषित होता है और आंशिक रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रेम आर्थिक निर्भरता का ही दूसरा नाम है। हालाँकि बाद में माणिक मुल्ला ने इस पर सफाई भी दी -
"इस रूमानी प्रेम का महत्व है, पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है, उसमें सपने, इन्द्रधनुष और फूल तो काफी मिक़दार में होते हैं पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक सम्बन्धों में बदल सके। नतीजा यह होता है कि थोड़े दिन बाद यह सब मन में उसी तरह गायब हो जाता है जैसे बादल की छाँह। आखिर हम हवा में तो नहीं रहते हैं और जो भी भावना हमारे सामाजिक जीवन की खाद नहीं बन पाती, ज़िन्दगी उसे झाड़-झंखाड़ की तरह उखड फेंकती है।"
उपन्यास में माणिक मुल्ला के प्रेम सम्बन्ध या प्रेम की सीमा तक ही पहुँचते सम्बन्ध तीन लड़कियों से दिखाए गए हैं। तीनो ही लड़कियों का स्वाभाव और जीवनयापन एक दूसरे से बिलकुल भिन्न था। जमुना भावनात्मक थी, लिली पढ़ी-लिखी थी लेकिन उसमें अपने आप से कदम उठाने की, निर्णय लेने की क्षमता न थी और सत्ती एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर महिला था जो कि बड़े फैसले स्वयं ले सकने में समर्थ थी। सत्ती के बारे में माणिक मुल्ला का कहना था - "वह कुछ ऐसी भावनायें जगाती थी जो ऐसी ही कोई मित्र संगिनी जगा सकती थी जो स्वाधीन हो, जो साहसी हो, जो मध्यवर्ग की मर्यादाओं के शीशों के पीछे सजी हुई गुड़िया की तरह बेजान और खोखली न हो। जो सृजन और श्रम में, सामाजिक जीवन में उचित भाग लेती हो, अपना उचित देय देती हो।" इन तीनों पात्रों के माध्यम से भारती जी ने निम्न मध्यमवर्ग की सच्चाई को दिखाया है कि किसी का स्वाभाव कैसा भी हो, अगर वह समाज से विद्रोह कर सकने में समर्थ नहीं है तो उसे समाज की तर्कशून्य मांगों को मानना ही होगा।
गुनाहों का देवता के बाद आये भारती जी के इस उपन्यास को सराहा गया था। कुछ कुछ जगहों पर गुनाहों का देवता की रूमानी शैली देखी जा सकती है जहाँ पर भारती जी कथानक को धीरे-धीरे प्रकृति से शुरू करके मनुष्यों पर खींच लाते हैं और अंत में उसे फिर ले जाकर प्रकृति पर छोड़ देते हैं । इस उपन्यास पर इसी नाम से एक हिंदी फिल्म भी बनी थी जिसे श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया था और उसको भी पर्याप्त सराहा गया था। फिल्म को 1993 का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया था।
धर्मवीर भारती जी का उपन्यास सूरज का सातवाँ घोङा बहुत ही मार्मिक रचना है।
ReplyDeleteयह colleges में भी पढाई जाती है
ReplyDeleteits very difficult for students.
ReplyDeleteManik mulla k character ko samajhna bahut hee mushkil h students k liye
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