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Dec 17, 2015

निठल्ला

मैंने देखा है
लैम्प पोस्ट की पीली रोशनी के नीचे
रात के ग्यारह बजे
तिरपाल से ठेला ढकते हुए
और महत्वाकांक्षाओं को समेटते हुए
ख्वाबों पर काबू करती हुई
एक ही समय में तरसती और संतुष्ट होती हुई
कातर आँखों को।

मैंने देखा है
सामने की खिड़कियों में
प्रेमी से फ़ोन पर बात करते हुए प्रेमिकाओं को
उनके चेहरे पर चढ़ते-गिरते हुए भावों को
कुछ समझाने के प्रयास में
विचित्र आकृतियाँ बनाती हुई
उनकी पतली उँगलियों को
इठलाती-लजाती आँखों को।

मैंने देखा है
हवा के ज़ोर से
अचानक से सिहर उठी
कांपती हुई पत्तियों को
जैसे बॉस से डाँट खाया हुआ
कोई निरीह कर्मचारी
जैसे सुबकता हुआ कोई असहाय प्राणी
मैंने झांककर देखने की कोशिश की है
उन झुकी हुई आँखों में।

मैंने देखा है
नौ से छः बजे तक
दिनचर्या में खप गई
सोचने समझने की क्षमता से बहुत दूर
सुबह चालू होती हुई
शाम को बंद होती हुई
दो पैरों पर चलने वाली मशीनों की
पथराई हुई आँखों को।

मैंने देखा है
कुछ अंतराल पर
छज्जे से टपकती हुई
छोटी-छोटी बूंदों को
जैसे दशकों तक संजोकर रखी हुए
समय के, समाज के भार से दब गई हुई
हार गई हुई
कुछ सिसकती हुई आँखों को।

मैंने देखा है
कि पिछले कुछ समय से तमाम कोशिशों के बाद भी
खुद को व्यस्त नहीं रख पाया हूँ
इसीलिए दुनिया को अल्हदा नज़रों से देख पाया हूँ
क्या बताऊँ,
पिछले कुछ दिनों से बहुत निठल्ला रहा हूँ
इसीलिए कुछ देख पाया हूँ
इसीलिए कुछ कह पाया हूँ। 

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