उस शाम को
तब तक तो कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी
वहाँ कुछ पीछे छोड़ देने पर विजय-भावना
पूरे माहौल में सुगन्ध की तरह फैली थी
जीवन का एक समारोह-सा हो रहा था
स्वर-लहरियाँ एक के पीछे एक दौड़ रही थीं
जीवटता वाद्य-यंत्रों से छन-छन कर आ रही थी
और तट के किनारे
जीवन का नृत्य जोरदार चल रहा था,
सूरज भी इन्हें देखने टीले के पीछे चला आया था।

लेकिन उस शाम एक अजीब बात हुई
उस शाम सूरज अस्त नहीं हुआ
मद्धम लहरों के ऊपर आ खड़ा हुआ
और नाचने लगा
वातावरण ने सूरज की लाली को आत्मसात कर लिया
उस शाम की अन्तिम किरणें
जैसे हर किसी के अंदर आकर बस गईं
और नयी स्फूर्ति के साथ
जीवन का नृत्य और भी जोरदार हो गया
इन सबको देखकर सूरज और भी बहक गया
समुद्र की सतह पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाने लगा
लहरों को अपने से दूर हमारी तरफ भेजने लगा
उस दिन सबने देखा था
कि सूरज अस्त नहीं हुआ था
बल्कि उसके पहले ही एक नया सूरज उग आया था
लाल, उत्साहित, नया, नहाया हुआ-सा
समय एक क्षण के लिए थमा
हम सबने सुनी अपने अंदर एक ध्वनि
एक चिर-परिचित ध्वनि
जो हमारे अंदर ही कहीं तिरस्कृत-सी रहती है
उस ध्वनि के शुरू हो जाने के बाद
अब वहाँ रहना प्रासंगिक नहीं रह गया था
हम नए उगे सूरज का
थोड़ा-थोड़ा अंश लेकर लौट आये थे।


Robert M. Pirsig had difficulty in finding a publisher for the book 'Zen and the Art of Motorcycle Maintenance.' In fact, this book holds the records of the most number of the rejections before getting published. As Pirsig says in the introduction that this book is not much related to the Buddhist branch Zen and is not too factual on the motorcycles either.' In this book, Pirsig goes on a travel on a motorcycle from Minnesota to San Francisco, but this is not the main theme or content of the book. During this travel, Pirsig undertakes a discussion of a major schism in the current philosophical thought, which is the major theme of the book. Based on his own experience in the college and in the life, Pirsig presents this ‘inquiry into values.’

'Zen and the Art of Motorcycle Maintenance' by Robert M. Pirsig
In the initial chapters, Pirsig discusses the scientific method. He says that to reach a conclusion while following a scientific method, one has to have many hypotheses and then verify these hypotheses in a controlled experiment disinterestedly to reach a conclusion and the conclusion thus arrived explains the observed behavior. Pirsig says that since an observation can have an infinite number of hypotheses to explain it, it is difficult to have one true hypothesis. Contrary to the impression of objectivity that is given to science, the formation of a hypothesis may be a work of intuition (credited to Einstein in the book). Pirsig notes that these are 'strange words for the origin of scientific knowledge.'

In the current system of thought, there are two broad categories - Romantic and Classical. The Romantic school of thought is concerned with the appearance, being and some level of mysticism. It is concerned with beauty and other aesthetic values. The Classical school of thought, on the other hand, is concerned with knowing things in detail, knowing what causes a process to happen in a certain way and only in that way. This is much closer to the discourse that the western philosophy has embraced for last two thousand years. The questions that Pirsig asks are does classical school has no beauty. Are romantic and classical schools so incompatible?

In last few chapters of the book, Pirsig cites historical figures such as Aristotle in the discussion of rhetoric and dialectic. As Aristotle said that 'Rhetoric is an art because it can be reduced to a rational system of order.' Pirsig, a believer in dialectic (where a person investigates the veracity of an opinion), Pirsig could never accept this. A good Rhetorician never follows a rule and howsoever one tries, it can never be established that certain rules make a better rhetoric. Rhetoric represents quality and dialectic represents truth and we need to find a way so that these two can co-exist. In the ancient times, quality and truthfulness co-existed, but later philosophical traditions separated them leading to many of the problems of current thought.

Throughout this book, Pirsig narrates the story by two of his versions. His past self, whom he has named Phaedrus, is looking for the reason and rationality. Because of this, he has to undergo hardships as his doubts could not be clarified by the big names in the relevant field. He was deemed to be an unorthodox person. His current self is more compromising and able to make amends. Pirsig’s son Chris, his companion on the bike trip, had seen his past. That is why whenever Pirsig sunk into deep philosophical thoughts, Chris got worried that he may be returning to his past. At the end of the book, the author reconciles himself with his past.


तुमने कभी रेलगाड़ी से बाहर
पानी फेंककर देखा है, अदीब?
कुछ दूर तो वह एक रेखा में धार बनकर चली जाती है
फिर अचानक 90 अंश के कोण पर
हिंसात्मक रूप से छितराकर
बहुत तेजी से ओझल हो जाती है।
तुमने वहाँ दर्शन देखने की कोशिश नहीं की?
कै़द करके रखी हुई किसी राशि की अकुलाहट,
या यूँ ही विभिन्न आयामों को आत्मसात कर लेने की उद्विग्नता,
या अनेक घटक इकाइयों में प्रतियोगिता,
या फिर सार्थकता की तलाश में निरंतर प्रयासरत कुछ बूँदें।
तुमने दर्शन वहाँ नहीं देखा
जहाँ उसे देख पाना बहुत आसान था,
तुमने उसे देखा मन और पदार्थ के विभाजन में
नियंत्रित और नियंता की परिभाषाओं में 
सत्ता के प्रतिष्ठानों की बनावट में
भूत और भविष्य के सम्बंधों के निर्धारण में।
तो पानी की धार के व्यवहार को
एंट्रोपी बढ़ाने की एक सरल परिभाषा में गढ़कर
आसानी से बातों में उड़ा देना 
उचित ही है न, अदीब?


'कितने पाकिस्तान' कमलेश्वर का लिखा हुआ एक प्रयोगवादी उपन्यास है। इस उपन्यास को 2003 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। यह उपन्यास बाकी उपन्यासों से कई मामलों में अलग है। पहला, इसमें सामान्य घटनायें, जैसे उपन्यासों में होती हैं, नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं का लेखक के नज़रिये से वर्णन है। दूसरा, पात्र बहुत कम हैं। ऐसा कहना भी सर्वथा उचित ही होगा कि मुख्य पात्र समय है क्योंकि सारा कथानक उसी के इर्दगिर्द घूमता है। उपन्यास में सदियों से चले आ रही हिंसा और मारकाट के प्रति गहरा क्षोभ है। पात्रों की इस कमी को इतिहास के प्रसिद्ध व्यक्तियों को कटघरे में लाकर दूर किया गया है। 

कमलेश्वर द्वारा रचित 'कितने पाकिस्तान'
कहानी का संचालन एक पात्र अदीब करता है। जैसा कि नाम से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अदीब एक साहित्यकार या बुद्धिजीवी है जिसे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास है और उसे लगता है कि अनेक वर्गों में जनता को बाँटकर फायदा उठाया जा रहा है। अदीब को लगता है कि ऐसे समय में लेखकों, पत्रकारों और अन्य बुद्धिजीवियों को कुछ करना पड़ेगा। अदीब अगर नायक है तो सलमा को नायिका कहा जा सकता है लेकिन कथानक में उसे स्थान कम ही मिला है। सलमा के माध्यम से कमलेश्वर ने कृत्रिम सीमाओं को लेकर निराशा व्यक्त की है। अदीब और सलमा के वार्तालाप के माध्यम से लेखक ने समाज के नियमों में खुद को ढाल न पाने वाले लोगों की चिंता दिखायी है। कहानी में एक और पात्र है जिसे अर्दली के नाम से पुकारा गया है। यह एक मजबूत पात्र है जिसने जगह जगह पर लोगों के दोगलेपन को उजागर किया है। 

अगर उपन्यास का सार निकालने की कोशिश की जाए तो यही आयेगा कि सदियों से चली आ रही विभाजन की परम्परा बंद हो और मनुष्य एक मनुष्य की तरह जीवित रह सके। धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, जाति के नाम पर, विचारधारा के नाम पर, भाषा के नाम पर और वर्ण के नाम पर विभाजन अब बंद होने चाहिये। कमलेश्वर ने अपनी बात को पुख्ता तरीके से रखने के लिये सम-सामायिक घटनाओं का उल्लेख किया है जैसे कोसोवो, पूर्वी तिमोर, सोमालिया, कश्मीर आदि जगहों पर हो रहे आंदोलन और प्रतिहिंसा। इसके मूल में जाने की लेखक ने कोशिश की है तो पाया है कि कहीं न कहीं किसी अन्य ताकत ने ये पहचान के संकट खड़े किये और फिर उसके बाद जब जनता विभाजित हो गयी तो उसका फायदा उठाया, वरना कोई कारण नहीं है कि दो अलग पहचान के लोग साथ नहीं रह सकते।

इतिहास जैसा हम जानते हैं और जैसा हमें पढ़ाया जाता है उसके प्रति भी कमलेश्वर ने अपनी राय दी है। मसलन अयोध्या जन्म-भूमि और बाबरी मस्ज़िद के विवाद के पीछे जो कारण बताया जाता है और जो अब राजनीतिक हो गया है उसको कमलेश्वर ने झूठ कहा है। मुगलकालीन कई अभिलेखों और पत्रों को उद्धृत करके यह बताने की कोशिश की गई है कि बाबरी मस्ज़िद की प्रचलित कहानी सही नहीं है। अगर यह सत्य है तो यह एक रुचिकर बात है कि इतिहासकारों का ध्यान अभी तक इस ओर क्यों नहीं गया और अगर गया भी है तो यह विचार मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पाये। कमलेश्वर ने यह बताने की कोशिश की है जनता को बाँटकर रखने से उन पर नियंत्रण करना कितना आसान हो जाता है। अगर कोई शासक लोगों को साथ लेकर चल नहीं पाता है तो वह धर्म का सहारा लेकर शासन करना चाहता है। कमलेश्वर ने यह बात दाराशिकोह और औरंगज़ेब के बीच खींचतान को केंद्र में रखकर दिखाया है। 

उपन्यास में वामपंथी विचारधारा के तत्व देखने को मिलते हैं और पश्चिम की व्यवस्थाओं के प्रति गुस्सा देखने को मिलता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सामंतवादी विचारधारा को भारत में लाने के बाद यहाँ जनता की स्थिति ख़राब ही हुई है। पूँजीवाद और उसके द्वारा लायी गयी व्यवस्थाओं के प्रति कमलेश्वर का रुख बहुत उत्साही नहीं रहा है। साथ ही साथ धर्म के उपदेशकों को समस्या का एक भाग माना गया है, जैसा कि हमने औरंगज़ेब के प्रसंग में और अन्य जगहों पर देखा है। इस उपन्यास में एक सन्देश है जिसे लोग आत्मसात करने में कहाँ तक सफल रहेंगे यह तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतिहास से सीखने को काफी कुछ है यह दिखता है। 

जैसा की पुस्तक की भूमिका में कमलेश्वर ने ख्याति-प्राप्त लेखकों की प्रतिक्रियाओं का हवाला देते हुये लिखा है कि इसे उपन्यास के एक प्रचलित ढांचे में देखने में बहुत दिक्कत हुई। लेकिन प्रयोगवाद की यही तो एक पहचान होती है कि एक प्रयोग पहचानी जा चुकी परम्पराओं से भिन्न होता है। एक लेखक ने पुस्तक की समीक्षा करते हुये इसकी शब्दावली को आसानी से ग्रहण करने वाला बताया है और जैनेन्द्र की भाषा से तुलना करते हुये इस समाज के ज्यादा करीब पाया है। मैंने जैनेन्द्र को तो अभी तक नहीं पढ़ा है लेकिन ‘कितने पाकिस्तान’ जरूर बोलचाल की हिंदी का प्रयोग करता है जिसमें उर्दू के शब्द भी हैं और तत्सम भी। जो भी भाषा अपने विचारों को व्यक्त कर जाये वही उचित होती है।


उर्दू साहित्य जगत में मंटो के नाम से कौन परिचित नहीं है। मंटो की चुनी हुई कहानियों का यह संग्रह 1950 में प्रथम प्रकाशित हुआ मालूम पड़ता है। ऐसा भूमिका में दी गई जानकारी से लगता है। इन कहानियों में मानवता के उन पहलुओं को छुआ गया है जो धर्म, भाषा और पहचान जैसे सवालों से बहुत दूर हैं और सिर्फ दो वक़्त की रोटी और जान-माल की सुरक्षा के लिए परेशान किसी शख्स के दिल से सटे हुए मुद्दे हैं। 

सआदत हसन मंटो की लिखी 'टोबा टेक सिंह और अन्य कहानियाँ'
मंटो के इस कहानी संग्रह में मुख्यतः तीन प्रधान विषय हैं। पहला,विभाजन के समय की स्थितियों का भावुक और छू लेने वाला वर्णन। कहानियाँ प्रधान रूप से उस दौर की हैं जब बंटवारा हो चुका था या उसकी नींव पड़ चुकी थी। और ज़ाहिर है कि इस बँटवारे से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित जनता की कठिनाईयाँ भी बहुत अधिक रही होंगी जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। अप्रत्यक्ष रूप से भी बहुत सी जनता प्रभावित हुई होगी लेकिन उसका कष्ट उन लोगों के सामने कुछ भी नहीं है जिन्हें अपना घर-बार छोड़कर सब जाना पड़ा था। 'टोबा टेक सिंह' तो अब तक बहुत प्रसिद्ध कहानी हो चुकी है जिसमें एक पागल को अपने घर के सिवाय कुछ नहीं सूझता लेकिन कहीं न कहीं घर की ज़िद सामान्य लगती है और बँटवारा अधिक पागलपन लगता है। बँटवारे के समय स्त्रियों पर क्या बीती थी इसका चित्र 'खोल दो', 'मोजेल', 'नंगी आवाज़ें' और 'ठण्डा गोश्त' में देखा जा सकता है। निरंकुशता के समय आदमी का पतित रूप या बदले की भावना से ग्रसित किसी भीड़ की हालत इन कहानियों में बखूबी दिखती है। 

दूसरा, मंटो की कहानियों जैसे 'हतक', 'काली सलवार', 'खुशिया' और 'नया कानून' के पात्र समाज के उपेक्षित भागों से चुने गए हैं, जिन पर या तो मुख्यधारा के लेखक कहानियाँ लिखते ही नहीं हैं, या आदर्शवाद के लेप से मूलभाव ही गायब कर देते हैं या उनके कार्यों के पीछे किसी न किसी को दोष दे देते हैं। मंटो ने उनकी स्थितियों को ठीक वैसा दिखाया है जैसे वह होती हैं न कि जैसे उन्हें होना चाहिए। कहीं कोई बड़े आदर्श का पीछा नहीं है, न ही कहीं अपने किये पर किसी प्रकार का पछतावा है। बस उन भावनाओं पर चले जाने की मंशा है जिन भावनाओं से एक सामान्य मनुष्य, जिसकी जरूरतें भी बहुत सामान्य होती हैं, चलता है। अपमान, दिखावा, बदला, घृणा और ईर्ष्या जैसी भावनाओं को जस का तस दिखाया है जैसे वो समाज में मिलती है, बिना नैतिकता का लेक्चर दिए। 

तीसरा, कहानियों के विषय और पात्र थोड़ा असहज करते हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि एक समाज के तौर पर इन सब मुद्दों पर बात करने की हमारी आदत नहीं है। मंटो की कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगे जिनके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन कोई मनुष्य दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि बँटवारे के दौरान महिलाओं ने कहानियों में वर्णित कठिनाईयां नहीं झेली या एक महिला जिसके पेशे को समाज निकृष्ट मानता है उसमें मानवीय भावनायें नहीं होती हैं या झूठी शान के लिए मनुष्य बड़े-बड़े और गैर-जरुरी काम नहीं करता है। यह सारी चीजें समाज में होती है लेकिन इनकी चर्चा साहित्य से बाहर रखने की एक जरुरत प्रभावकारी लोगों ने महसूस की है। लेकिन साहित्य समाज का आईना होता है। 

ये कहानियाँ मूलतः उर्दू में लिखी गयी कहानियों का हिंदी अनुवाद है जिसे प्रकाश पंडित ने किया है। अनुवाद में ज़ाहिर है कुछ साहित्यिक उपलब्धियाँ छिप जाती हैं लेकिन यह कहना होगा कि इस अनुवाद के माध्यम से प्रकाश पंडित कहानियों के सार को बयान करने में कामयाब रहे हैं। ज्यादातर कहानियाँ बड़ी नहीं हैं, अंतिम दो को छोड़कर, लेकिन विचारोत्तेजक हैं और कहीं न कहीं ऐसा लग सकता है कि जैसे किसी असल घटना को बयान किया गया हो। 


1.
उषा के रंग की एक भट्टी
पूरब के कोने में
सृजन के श्रम में पुरजोर लगी है,
निकले हैं बादल, किरणें, समय और मानी
मचल उठते हैं चलने को
अपनी-अपनी दिशाओं की ओर
स्रोत से विद्रोह कहें
या विपरीत का आकर्षण
मनुष्य में ये भावना भी शायद प्रकृति से आयी है।

2.
एक नदी है
जिसकी लहरें रुकी हुई हैं
समय के नियम के विपरीत
जिसके ऊपर चलते हुए
हम खुद को समय-यात्री समझ बैठते हैं
कोई हवा चलती है
बादलों की बनी नदी बह उठती है
समय-यात्रा बस ख्याल है,
आकृति टूटती है,
समय बलवान है।

3.
रुई के फाहे
बिखरे हुए हैं तल पर
सूरज की किरणें रुई को सफ़ेद करने पर तुली हुई हैं,
नीचे शायद अँधेरा क़ैद होगा
कोने के भूरेपन-कालेपन से
शायद कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है,
भोर के कुछ समय बाद
रुई के फाहे हो जायेंगे अनंत में विलीन
विस्मृत
अँधेरे से लड़ने वाली अनंत इकाइयों की तरह।

4.
सूरज से निकली हुई किरणें
तुरंत अपने आप में आकार नहीं लेती हैं
क्षितिज से टकराती हैं
बादलों को दुलराती हैं
अंत में अपने रूप में आती हैं
हाँ शायद,
ब्रह्म को दिखाने का सूरज का ये तरीका होगा,
परिभाषा नहीं है,
आत्म के लिए ब्रह्म को परिभाषित करना
इतना भी आसान नहीं होगा।

a surise in an aircraft


Steppenwolf is a famous novel penned by Swiss author Hermann Hesse who wrote in German. His three novels became very famous - Siddhartha, Steppenwolf and The Glass Bead Game (Magister Ludi). To prepare himself for this novel Hesse spent few months in isolation and as one becomes aware while reading this novel how realistically he has described the feelings of isolation and solitude. The title of the book is a reference to the lonely wolf of German steppes - that’s how the protagonist of the novel refers to himself as he thinks that he has two personalities, one of a person who socializes with his landlady and his ex-wife and the other of a lonely wolf wandering on his own.

Steppenwolf' by Hermann HesseThe protagonist Harry Haller of this novel lives alone and has his own world cut-off from the outside world. He comes in contact with Hermine, whom he meets in a bar. Their characters are built in such a way so that the contrast can be shown in their life. Strangely enough, they like the company of each other. Other characters such as the Pablo serve the purpose to show the Haller’s dislike of a world where everyone is keen on talking and meeting warmly with a person. Haller thinks that it is a way of life where a person does not think much and it is a superficial way to live. Still, Pablo makes Haller learn the important lesson of the life towards the climax.

The main themes explored in this novel are isolation, a conflict between given and wanted life, bourgeois life, and purpose of the life. Many events of the book are kept ambiguous and there had been different interpretations of those events for decades now. Of many ambiguities is that whether the character of Hermine was real or Haller's figment of the imagination. The way he deduces her name in the bar may induce one to think that he was hallucinating. In a later edition of the book, Hesse comments in the foreword that it is not the job of an author to comment on the interpretations of his book, but even then he was surprised by what people have thought about this work. He did not think that too many people got it right.

As suggested by the title itself of the book, one of the main themes is solitude and isolation. Haller lives alone and in this isolation, he becomes disenchanted with the world. He sees the world from a wolf’s eye and then nothing makes sense to him. Then he goes in the pursuit of finding satisfaction in his life on his own. He thinks that when a person thinks and acts on his own, only then can something fruitful and long-lasting can be achieved. Giving an example of Bourgeois society he says that too many people live identical life. If everybody thinks in the same way then society cannot progress. Somewhere someone while living in the skin of bourgeois has to act on his own to start something which society can follow. Then comes the conflict - how to become that person.

Haller is fed up of the normal life that he is living. He thinks that he is destined to be someone big and important but languishing as the not-so-important person. In the end, his favorite musician, Mozart explains to him that life is full of compromises. If one sets out to be ideal, finds faults in what everyone and deems only what he himself does is correct, then life would become very difficult. In the climax of the novel, Haller is reconciled with this reality.


एक मामूली वक़्त था और एक मामूली सी रात थी
जब तक नहीं आया था चाँद मुंडेर पर इस रात को।

एक रंग चाँद का और एक लहज़ा तुम्हारा किसी शब
हम ले आये हैं खींचकर फिर उसी मोड़ पर रात को।

एक हवा सर्द चली और एक हर्फ़ मेरे मन में लिखा
ये तन्हाइयों के मशविरे भी अब होने हैं इस रात को।

एक दुनिया कागज़ी पुरानी और एक छुआ जा चुका चाँद
दो सफ़ेद स्याह जैसी फ़र्क़ वाली बातें घुली हैं रात को।

एक साथ चराग़ का और एक बात कशिश-ए-महताब की
हमारी हसरतें भी सिमटकर रह गई हैं देखो इस रात को ।


'Guns, Germs and Steel' is a book of history or popular science, depending on the way you look at it. It tries to answer few questions on human evolution. The author of this book Jared Diamond is a professor of geography and his first-hand experience of different societies across the world enabled him to look into the questions of evolution broad-mindedly. The motivation behind this book was to answer the question asked to him by one of his friends in New Guinea. The question was why the West European nations colonized the New Guinea and not the vice versa. A narrow-minded approach might give superiority to some races and might conclude that these races were better in using their brains and manipulating the nature but Jared Diamond says that races have nothing to do with differences in evolution. Instead, it was the geography and biogeography which made the things the way they stand today.

'Guns, Germs and Steel' by Jared Diamond
In determining that which societies will be comparatively technologically advanced and which will remain hunter-gatherer, the development of food production has a crucial role to play. The Fertile Crescent of Eurasian landmass and some areas in China had an advantage - the availability of grasses with large seeds which were the potential candidates for domestication. Americas, Australia, and Sub-Saharan Africa have few domesticable plant species compared to Eurasia. The same can be argued for the animals. In addition, the east-west major axis of the Eurasia helped in the adoption of domesticated species in new societies, as weather/climate conditions at same altitude do not vary much. Hence, a crop can be easily grown in different societies having similar climate, for example, subtropical climate. Once crops were grown on a large scale, humans started to settle in villages and leave hunting-gathering lifestyle. Once that happened, large centers of human population led to the possibility of having humans whose primary occupation was not farming. This happened because of availability of food surplus. That, in turn, led to the development of technology and centralized decision-making system. 

Jared Diamond also explains the reason behind the movement of the people in a certain direction and not in the other direction. To determine the direction of the movement linguistic evidence plays a major role, followed by archaeological artifacts such as pottery. If in an area a language family shows more variation than an area where subfamilies of a language group show greater similarities, then it is clear that former has got more time to develop differences and that area can be considered to be the origin of the people speaking languages of that family. Also, if in a language family root words are same for an object then it means that that object existed when the language was evolving . If there is an entirely different word for that object not found in parent languages then that object was independently developed or acquired from neighboring civilizations. 

The author gives examples of states which prohibited the use of certain technologies such as shipbuilding and seafaring in China in medieval times and use of guns in Japan in later medieval times. The author argues that these decisions could have been potential game-changers. Organization of the state matters in the eventual fate of the people. As China was unified when colonial exploration begun in medieval times, a decision by a monarch to not build ships was the end of the road for prospective explorers. At the same time, Europe was organized into many small states. When Columbus was denied the permission by one state, he approached another and after many unsuccessful attempts, he got the permission from Spanish State. 

In the concluding chapter, Jared Diamond discusses the future of history as a science. As said in the opening paragraph, this book can be considered to be a book of history if we see history as the description of something which happened in the past or to be a book of popular science if the methodology involves logical deduction and evidence-based reasoning. Compared to physical sciences such as physics, chemistry and molecular biology, history and its sister streams such as evolutionary biology, archaeology etc. face the problem that in these streams the past matters. In physics, the history of atoms does not matter when they collide. Also, in history, we cannot conduct controlled experiments. The other problem is that the results are probabilistic in nature which means that for a large sample results can be predicted with a reasonable accuracy but we cannot predict the individual events.


वैसे तो 'राग दरबारी' का प्रकाशन 1968 में हुआ था। यानी आज से लगभग 50 साल पहले। लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद आपको कहीं से भी यह नहीं लग सकता कि इसमें इतने पुराने दिनों की बात हो रही है। शिवपालगंज को कहीं अलग से खोजने जाने की जरुरत नहीं है। अगर ध्यान से देखिएगा तो हमारे आपके बीच छोटे-बड़े कितने शिवपालगंज, कितने वैद्यजी, कितने रामाधीन भीखमखेड़वी मौज़ूद हैं। यह एक लेखक के लिए गर्व की बात हो सकती है कि उसकी लिखी रचना लिखे जाने के बाद और ज्यादा प्रासंगिक होती जा रही है। इसमें से कुछ बातें अगर उस समय को पाठकों को काल्पनिक लग गयी हों तो आज तो सर्वथा उचित ही लगती हैं। यहाँ एक बात आश्चर्य करने वाली यह है कि यह सब आज़ादी के दो दशकों के भीतर हो गया था। जिस आज़ादी के लिए इतने लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी लगा दी थी उसका विकृत स्वरुप बहुत जल्दी ही बेपर्दा हो गया था।

श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित 'राग दरबारी'
इस उपन्यास की कहानी किन्हीं मुख्य किरदारों के इर्द-गिर्द नहीं घूमती है। उपन्यास में अनेक पात्र हैं और लगभग सभी किरदारों को समान अहमियत दी गई है। गाँव की राजनीति के दो मुख्य ध्रुव हैं - वैद्यजी और रामाधीन भीखमखेड़वी। वैद्यजी अपरोक्ष रूप से गाँव का कॉलेज, कोआपरेटिव सोसाइटी चलाते हैं। इस बार प्रधान पद भी वैद्यजी के गुट में आ गया था। रामाधीन के पास अवैध धंधों का एकाधिकार था। वैद्यजी के दो बेटे थे - एक अखाड़े में पहलवानी करते थे और दूसरे कॉलेज में राजनीति और गुण्डागर्दी। रंगनाथ शहर का पढ़ा हुआ एक लड़का है जो कि कुछ दिनों की छुट्टी के लिए शिवपालगंज में अपने मामा वैद्यजी के पास जाता है। ये सभी पात्र शिवपालगंज के रहने वाले हैं। कहानी के स्थानों के वर्णन से यह लखनऊ के पास किसी स्थान की कहानी लगती है, जहाँ अवधी भाषा बोली जाती है।

कहानी में हास्य है लेकिन हास्य केन्द्रित कहानी कह देना अनुचित होगा। कहानी का केन्द्र व्यवस्था में जड़ जमा चुकी अनैतिकता है। अंत में हर एक पात्र का उद्द्येश्य सिर्फ यह रह जाता है कि कोई चीज उसके अनुसार हो रही है कि नहीं। व्यवस्था को सुधारने से किसी का कोई उद्द्येश्य नहीं रह जाता। सरकारी तंत्र के जिन अंगों का यहाँ पर ज़िक्र हुआ है उनका बहुत ही पतित रूप दिखाया गया है चाहे वह पुलिस हो, न्यायालय हो, सरकारी विद्यालय निरीक्षक हों या गाँव के प्रधान ही क्यों न हों। हर एक व्यवस्था को अपने अनुसार ढाल लेना यह कोई इस उपन्यास के पात्रों से सीखे। यह करते समय भी ऊपर से आदर्शवाद का दिखावा बनाये रखा जाता है और भाषणों में आदर्शवाद की कोई कमी नहीं दिखाई पड़ेगी। सामान्य जनता में भी शायद इस बात का भरोसा हो गया है कि जिसके पास शक्ति है वही सब कुछ कर सकता है, अन्यथा व्यवस्था से लड़ने का कोई फायदा नहीं है। उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि किस प्रकार से रबर-स्टाम्प लोगों के माध्यम से सत्ता को परदे के पीछे से संचालित किया जाता है।

इस उपन्यास में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच की खींचतान को दिखाया गया है। शहर का पढ़ा हुआ नौजवान जब किताबी आदर्शों को लेकर गाँव पहुँचता है तो उसे हर एक संस्था भ्रष्ट लगती है। वह हर समय यही कोशिश करता रहता है कि कैसे इस व्यवस्था को सुधार जाये। उसने जब देखा कि अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों का पलड़ा कमजोर हो रहा है तो उसने उन लोगों की तरफ से आवाज उठाने की कोशिश भी की और उनको अप्रत्यक्ष रूप से बेईमानी के विरुद्ध लड़ते रहने के लिए उकसाया भी। इतना सब करने के बाद भी जब उसकी कोशिशों का कोई परिणाम नहीं निकला तो उसने हार मान ली। और गाँव छोड़कर जाने का फैसला कर लिया। लेकिन तब कहानी के अन्य पात्र ने उससे कहा कि जाओगे कहाँ। हर जगह तो बेईमानी और भ्रष्टाचार व्याप्त है। उसने इस बात पर सोचा भी कि छोटे बड़े रूप में हर जगह शासन ऐसे ही चलता है। यही इस उपन्यास का मूल तत्त्व कहा जा सकता है कि अनेक बार जब आदर्शवाद और यथार्थवाद टकराते हैं तो बहुधा पहले हार मानने वाला आदर्शवाद ही होता है।

उपन्यास की भाषा में आँचलिकता के तत्व हैं। उत्तर प्रदेश के अवध प्रान्त में बोले जाने वाले बहुत से शब्द इस्तेमाल किये गए हैं। कई जगह सीधे सीधे अवधी भाषा में किये गए वार्तालाप को उद्धृत किया गया है। पूरी पुस्तक के हर एक पैराग्राफ में शासन-व्यवस्था पर प्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष किया गया है। इस तरह से कहीं भी रूचि कम नहीं होती है। कहानी का अंत थोड़ा अलग है। यह लग सकता है कि अंत अचानक से हो गया है। साथ ही साथ कॉफ़ीहाउस में चलने वाली वैचारिक चर्चाओं पर भी व्यंग कसा गया है जिनका कोई परिणाम निकलकर नहीं आता है लेकिन उसमें भाग लेने वाले अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। श्रीलाल शुक्ल को इस कृति के लिए 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। कटाक्ष का एक उदाहरण देखिये-

".. फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावज़ूद, लोगों को अपच हो सकता था। लेक्चर का मज़ा तो तब है कि जब सुननेवाले वाले भी यह समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलनेवाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूँ। पर कुछ लेक्चर देनेवाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुननेवाले को कभी-कभी यह लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ही ईमानदार है। ऐसा संदेह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका असर श्रोताओं के हाज़मे के खिलाफ पड़ता है।… ज्यादातर लोग की लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच लेते थे।"


'The hero with a thousand faces' is a book of comparative mythology where the author has tried to show the similarities between the myths prevalent in many parts of the world. One will wonder how strikingly similar are the mythologies of seemingly disconnected communities across the world. Hence, the title of this book seems apt as if it is describing a single hero seen by different communities in many different forms. The author of this book Joseph Campbell has also written a four-volume book on world mythologies titled 'The Masks of God.'

'The Hero With A Thousand Faces' by Joseph Campbell
The book is divided into two parts. The first one is titled - 'The adventure of the Hero.' In this part, the author describes the monomyth - a myth found in most of the mythologies with slight variations. The monomyth describes the life of the hero - who may be a God, a saint or a worrier. The first step is the departure in which the hero gets a call to adventure by supernatural means or by the conditions prevailing around him. This is the first threshold that he has to cross. Then comes the initiation. In this phase, the hero faces many hurdles and has to prove that he is worthy of being the chosen one. When he attains the ultimate boon which can be some knowledge or any other possession, he is ready for the third phase - the return. In this phase, hero initially refuses to return to his previous world but then he is 'rescued' and returns. There he lives as a triumphant person who has mastery over some art or has knowledge of something hitherto secret to an ordinary human being.

The second part of the book is titled - 'The cosmogonic cycle.' It is concerned with metaphysical aspects of mythology such as the creation of the universe. In this part, the author discusses the meaning given to things around us in mythology. An important topic of all the mythologies is creation and destruction - of both unit (microcosm) and universe (macrocosm) itself. In this part, the author also describes many forms given to the hero in mythologies such as lover, warrior, emperor, redeemer and saint.

In this book, the author Joseph Campbell has tried to explain the reason behind the myths by taking recourse to theories put forward by Jung and Freud. It was implied that man invented theories involving heroic figures for the events which could not be explained by existing knowledge or to quell the fear of unknown. This book is somewhat difficult to read without the prior knowledge of mythology and psychology, but once you get the summary of the theories involved, it becomes easy to comprehend. The author has given so many examples of the myths (stories from the communities around the world) that the larger monomyth formed by combining them is so convincing. It could be said that without knowing the examples it would have been so difficult to believe that mythological figures from around the world are so similar. Almost all the major and minor religions are represented in the stories presented in this book.

This book has attained a legendary status and is widely referred by the students of mythology. George Lucas has accepted that this book affected the story of the Star Wars. In a chapter titled 'The hero of today', the author concludes that the symbols which interested ancient societies have lost their force for the individual today. The author says-
"The descent of the occidental sciences from the heavens to the earth (from seventeenth-century astronomy to nineteenth-century biology) and their concentration today, at last, on the man himself (in twentieth-century anthropology and psychology) make the path of a prodigious transfer of the focal point of the human wonder."
The author concludes in the end that it is not the society that is to guide and save the creative hero but precisely reverse.


'एक बूँद सहसा उछली' अज्ञेय का लिखा हुआ दूसरा यात्रा-विवरण संग्रह है। इसके पहले उनका सन् 1953 में प्रकाशित हुआ 'अरे यायावर रहेगा याद?' आया था, जिसमें अज्ञेय जी ने अपने भारत भ्रमण के बारे में लिखा है। इसकी तुलना में 'एक बूँद सहसा उछली' थोड़ा अलग है क्योंकि इसमें लेखक ने यूरोप के लगभग एक वर्ष के प्रवास के बारे में लिखा है। अज्ञेय जी यूनेस्को द्वारा प्रायोजित यात्रा में यूरोप गए थे और जब वहाँ चले ही गए थे तो सोचा कि इस यात्रा को सार्थक बनाया जाये। प्रस्तुत पुस्तक में अज्ञेय जी ने इटली, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्श, स्वीडन आदि देशों की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है। भिन्न भिन्न देशों में उनके अनुभव भी भिन्न ही रहे हैं।

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित 'एक बूँद सहसा उछली'
इस पुस्तक की भूमिका में ही अज्ञेय जी ने घूमने के उद्द्येश्य के बारे में चर्चा की है। उन्होंने कहा है कि अगर इस पुस्तक को एक विवरणिका की तरह से सोचकर किसी ने पढ़ने के लिए उठाया है तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। यह पुस्तक रहने-घूमने के उत्तम स्थानों और खर्चे का अंदाजा लगाने के लिए किसी ने पढ़ने की कोशिश की तो उसे भी निराश होना पड़ेगा। लेखक की यात्रा का उद्द्येश्य धार्मिक तीर्थयात्रा न होकर मनुष्य के अनुभवों की वृद्धि था, ज्ञानार्जन था। लेखक बहुत से कवियों, विचारकों और दार्शनिकों से मिला और वहाँ पर उसने उसने संसार और इस लोक से पर की बातों पर चर्चा की। मनुष्य के अस्तित्व के मूलभूत सवालों पर चर्चा की और अंजान लोगों से मिलकर बातें करने का आनंद लिया। लेखक ने यूरोप के दर्शनीय स्थानों की भी यात्रा की। जब मनुष्य उन दो जगह घूमता है जिनकी समानताओं की पहले चर्चा हो चुकी होती है तो स्वाभाविक है कि लेखक के मन में भी इन तथाकथित समानताओं के बारे में कुछ विचार तो आयेंगे ही। स्विट्ज़रलैंड और कश्मीर की तुलना को व्यर्थ बताते हुये अज्ञेय जी ने कहा है कि दोनों ही प्रदेशों का अपना सौंदर्य है और उनको यथा अवस्था में रखते हुये उनका अवलोकन किया जाये, न कि यह सोचते हुये कि यदि यह पैमाना यहाँ होता तो यह भी उस जगह के जैसे लगता।

यूरोप में पहुँचकर जो जीवनशैली लेखक ने देखी उससे वह गहराई तक प्रभावित हुआ। पुस्तक में एक जगह पर लेखक ने भारतीय, यूरोपीय और चीनी जीवनशैली की तुलना करते हुये उनके दर्शनशास्त्र के मूल में जाने की कोशिश की है। यूरोप में व्यक्ति की निजी स्वंत्रता पर बहुत जोर दिया जाता है लेकिन उसका रूप पूरे यूरोप में एक जैसा हो ऐसा नहीं है। फ्रांस में हर एक आदमी किसी दूसरे के जीवन में दखल नहीं देता है लेकिन लेखक को इसका कारण एक दूसरे की परवाह न होना लगा।वहीं स्वीडन आदि देशों में निजी स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की सोच और कार्यों का सम्मान होना लगा। यूरोप में जीवन की इकाई व्यक्ति होता है और भारत में यही इकाई समाज होता है, समाज से इतर व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। कई जगह लेखक यूरोपीय जीवनयापन पद्धति से संतुष्ट दिखा तो कई जगह उसने इनको उनके दुखों का कारण भी बताया है। लेखक ने दार्शनिक कार्ल यैस्पर्स से अपनी मुलाकात का जिक्र किया है जिसमें यैस्पर्स पूछ बैठते हैं कि भारतीय दार्शनिकों में अपनी मौलिक विचारधारा का अभाव क्यों है। यूरोप के कई देशों में घूमने के बाद लगा कि बाहरी समानता के आधार पर यूरोप को एक महाद्वीप कह देना ठीक है लेकिन उनमें अंतर को वहाँ जाकर, वहाँ के लोगों से बातें करके ही जाना जा सकता है। उदाहरण के लिये लेखक ने ग्रीष्मकालीन अवकाश में लोगों की कार्य के प्रति सोच को दिखाया है।

पूरी पुस्तक को पढ़ने के बाद लेखक के इस ख्याल को साफ़ अनुभव किया जा सकता है कि जो समाज पुराने आदर्शों, जीवन शैली और स्थापत्य कला को जीवित रखता है वह अवश्य ही अनुकरणीय है। इटली के शहर फिरेंजे (फ्लोरेंस) और असीसी में घूमते हुये लेखक ने अनुभव किया कि वहाँ के भवनों में अभी भी पुरानी स्थापत्य कला जीवित है और ऐसा लगता है कि भवन निर्माण की नयी शैली से लोग परिचित ही नहीं हैं। उत्तरी यूरोप के शहरों में जब लेखक को नयी स्थापत्य कला ही दिखी तो उसने यह कहकर उसे ठुकरा दिया कि इस में कुछ भी गर्व करने लायक नहीं है। लेखक ने भारतीय पुरातत्वविदों के बारे में भी कहा है कि पुरानी शैली के नाम पर कुछ सौ साल पहले के ही निर्माण हमें दिख पाते हैं। हजारों साल पहले हम निर्माण कैसे करते थे यह अब किसी को याद नहीं रह गया है और जैसे इतिहास की अनवरत धारा में से एक भाग कहीं गायब सा हो गया है।

पुस्तक में लेखक ने यूरोप के धर्म के बारे में भी चर्चा की है। यूरोप के कुछ प्रसिद्द संतों की कर्मस्थली की यात्रा भी की है और उनके रहन-सहन, उनकी शिक्षाओं को जानने की कोशिश की है। यह भी जानने का प्रयास किया है कि उस समय की सामाजिक अवस्था और धार्मिक विचारधारा में ऐसा क्या था जिसने इन संतों के उत्थान में अपना योगदान दिया है। लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि पहले कला और धर्म समान विचारधारा से चलते थे। पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास पुनरुत्थान (रेनेसां) के समय कला और धर्म अलग हो गया। कलाकार सिर्फ दस्तकार रह गया। उसके हुनर से दिखने में सुन्दर अनेक वस्तुयें बनीं लेकिन उनमें वैचारिक शक्ति का अभाव था। लेखक ने पुस्तक में अपनी पूर्वी जर्मनी की यात्रा का भी जिक्र किया है जहाँ की अधिनायकवादी शासन व्यवस्था में साँस लेने में भी घुटन महसूस होती थी। जिस यूरोप का वर्णन अज्ञेय जी ने किया है वह पचास के दशक का है और अब तक वहाँ काफी बदलाव हो चुके हैं लेकिन यहाँ माना जा सकता है कि जिन मूलभूत विचारधाराओं की बात लेखक ने की है, उन्हें अभी भी कुछ बदलाव के साथ देखा जा सकता है।


'An uncertain glory - India and its contradictions' is a book which analyses the decision-making process in India after economic reforms and the impact of those decisions. It also analyses the attention given to under-privileged population by media and discussion forums. According to the author, in the real democracy, opinion-forming bodies discuss the whole population, not just a sub-section. The authors, Amartya Sen – a distinguished economist and Nobel laureate – and Jean Drèze, an economist living in India for more than 30 years now, have argued for a more active role of governments. They also argue for using a greater part of the revenues, generated by the high rate of growth of the Indian economy in last two decades, for welfare expenditure. While advocating that, the authors have given the example of 'Asian economic giants' who did not have very good social indicators before their economic boom but caught up in an impressive way. The authors focus mostly on China and Bangladesh for most of the comparative statistics but other countries have also been mentioned.

'An uncertain glory - India and its contradictions' by Jean Drèze and Amartya Sen
India's performance in most of the social indicators - such as those related to health, education, and poverty - has not been up to the expectation as was expected after seeing the experience of many other economies which 'opened up' in the later half of the twentieth century. Still, a large part of the country is not able to get the elementary education and many of the villages are situated too far from a school, a PHC or a PDS center (fair price shop). The authors bring out the neglect in the schemes with social benefits and even if schemes were initiated, they were implemented in a very inefficient manner.

One thing that stands out throughout the book is the advocacy of government as the provider of the amenities such as education, public health and curative health care (in contrast to public health care which is preventive in nature). The authors also advocate for a proactive role of government and ask private players to act as supplements, not as primary players. To support this public policy position, they give the example of many countries of Asia which started growing in last few decades but have succeeded in providing these amenities quite satisfactorily. The authors also state that most of the Europe and the US attained the high ranking in these parameters because of clear government interventions. While one may agree with the authors in many arguments given the 'public goods' nature of these amenities, the experience of India has not been good as far as implementation of government welfare schemes is concerned. Because of the rampant corruption, leakage, and bureaucratic inefficiency, schemes have not benefitted the intended public as might have been expected from them. With no clear solution to this malaise, any new scheme is bound to succeed only partially, if it succeeds at all. 

The authors focus on the public discourse in India and the neglect therein of under-privileged groups. According to the authors, the word ‘aam aadmi’ - meaning common man - has become synonymous with a section of the middle class which is a small fraction of the entire population but is very much represented in the media. Any attempt to curtail subsidies given to this group are met with wide protests and governments back down easily. According to the authors, socially and economically deprived sections of society are yet to be vociferous in their demands and when that happens, then only accountability can be ensured in our democracy. The authors also speak against too much focus given to the absolute rate of growth of the economy. While growth is good for an economy as it generates avenues of the employment, brings many people out of poverty and generates revenues which can be spent on public goods, it should not be seen as an end in itself, but as means to achieve greater social equality. 

Before reading this book, I read the book "India's Tryst with Destiny" by Bhagwati and Panagariya and ideological differences between these two books is quite apparent. Bhagwati and Panagariya advocate a free-market based libertarian approach with a greater role of private players given the failure of governments at various levels to provide the basic amenities, whereas Sen and Dreze argue for a government led modern liberal approach given the public goods nature of basic amenities. Which approach will work cannot be said until we try one and see the results. Both these approaches have been successful in few countries. It may not be possible to try both approaches and see which one works because of the non-reversible nature of such policy decisions. This book is a passionate analysis of what economic achievements India is lacking despite being entitled to them because of the consistently high rate of growth. 


सृजन की छटपटाहट में
जब माथा तपने लगा था
विचारों की आँधी में वर्तमान दूर कहीं घायल पड़ा हुआ था
एक लफ्ज़ भी कहीं मिल जाये तो साँस चल पड़ती थी
तब मुझको राहत देने के लिए
तुम दवा-दुआ नहीं लाये थे
तुमने मेरे माथे पर भीगा हुआ कपड़ा भी नहीं रखा था
तुम मेरे सिरहाने रख गए थे एक किताब।

क्या तुम बताओगे इस शहर के सन्नाटे में
रुक-रुककर आती चीखों का मतलब
क्या सुनाई नहीं पड़ती तुम्हें शब्दों के तड़पने
और मानवता के सिसकने की आवाज़
क्या कुछ चील फिर फाड़कर बैठ गए हैं
कुछ पन्ने किताबों के लेकर ऊँचे पेड़ पर
क्या? फिर कहीं जली है क्या कोई किताब?

तुमने भी देखा था क्या
कि धीरे-धीरे शब्द जुड़ने लग गए थे
जुड़कर सीढ़ियों का रूप ले लिया उन्होंने
जिनपर चढ़कर बोलने लगीं
ताज़ी हवा से पहली बार रूबरू
सदियों से दबाई हुई अनेक आवाज़ें,
मैंने तुमसे इंक़लाब माँगा था
और तुम दे कर गए हो मुझे एक किताब।


वोल्गा से गंगा राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा हुआ एक कहानी संग्रह है जिसमें कहानियों का विषय इतिहास की घटनाओं पर रखा गया है। इस पुस्तक में लेखक ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूरी तरह से मानते हुये उसके चारों ओर कहानियों को लिखा है। उस समय शायद यह सिद्धांत इतना विवादित न रहा हो। हालांकि पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने इस पुस्तक की आलोचनाओं के बारे में लिखा है कि किस तरह से सांकृत्यायन को नग्नवादी, ब्राह्मण विरोधी कहकर इस पुस्तक के उद्द्येश्य पर सवाल खड़े किये गए थे। कुछ इसी तरह की भावना इस पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में सांकृत्यायन जी ने व्यक्त किये हैं। आनंद कौसल्यायन ने सफाई में ज्यादा कुछ न लिखते हुये सिर्फ इतना लिखा है कि यदि किसी को आलोचना करनी ही थी तो कम से कम राहुल सांकृत्यायन के जितना अध्ययन तो किया होता। सांकृत्यायन को उनके ज्ञान के कारण साहित्यिक उद्धरणों में महापण्डित के नाम से भी जाना जाता है। आज के समय भाषा के अलावा और अन्य वैज्ञानिक पद्धतियों से आर्य आक्रमण सिद्धांत के मूल में जाने की कोशिश की गयी है। किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय यह सिद्धांत और विवादित हो गया है।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित 'वोल्गा से गंगा'
इस पुस्तक की पहली कहानी वोल्गा तट की है। वहाँ पर आज से 8000 साल पहले किसी जनजाति के पारवारिक ढाँचे, खान-पान, रहन-सहन के बारे में उल्लेख किया गया है। कहना न होगा कि उस समय की कहानियों में प्रामाणिक बातों की अपेक्षा कल्पनाशीलता की भरमार है लेकिन उसके लिए लेखक को दोष नहीं दिया जा सकता। वस्तुतः भारत के इतिहास की प्रामाणिकता बुद्ध और महावीर के समय के बाद बहुत बढ़ गयी थी जिसके दो कारण थे। पहला, बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों में देवताओं की अत्यधिक प्रशंसा की जगह उस समय के वास्तविक सामाजिक स्थितियों का चित्रण किया गया है। दूसरा किसी एक ग्रन्थ में कही गयी बातों को किसी दूसरे ग्रन्थ से तुलना करके उसकी सच्चाई जानी जा सकती है। सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत के राजाओं और शहरों का ज़िक्र यवनी साहित्य में भी मिल सकता है।

अन्य कहानियों में वैदिक भारत, उत्तर-वैदिक भारत, बुद्ध के समय के ऊपर कहानियाँ लिखी गयी हैं। इस पुस्तक में जातिवाद के कारणों में जाने की कोशिश की गयी है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पहले आर्य जातियों में कार्य का विभाजन नहीं था। हर एक मनुष्य हर एक कार्य कर सकता था। जब आर्य जातियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में आयीं तो उन्होंने व्यापार प्रधान समुदायों को देखा जहाँ एक मुखिया के पास अत्यधिक शक्ति केंद्रित रहती थी। आर्यों में सत्ता लोभी लोगों ने इस व्यवस्था को अपना लिया था। धीरे धीरे यह व्यवस्था अपनी जड़ मजबूत करती गयी और इसको बदलना लगभग असम्भव हो गया। आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के युद्धों को लेखक ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है जिसके कुछ कुछ उल्लेख महाग्रंथों में मिलते हैं। मध्यकाल तक पिछड़ी जातियों में उच्च जातियों के प्रति इतना क्षोभ आ गया था कि उन्होंने विदेशी शासन को भी अच्छा माना है।

पुस्तक की आखिरी कहानियों में लेखक ने साम्यवाद को भारत की बुराइयों के हल के रूप में प्रस्तुत किया है। उस समय सोवियत संघ की कहानियों को सुनकर एक बार लग सकता है कि सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त हो गया था और शासन का एकमात्र उद्द्येश्य लोगों का कल्याण था। जातिवाद और आय में घोर असमानता जैसी समस्याओं का हल साम्यवाद कहा गया है। इतने वर्ष बीत जाने के बाद पीछे मुड़कर देखा जाये तो सोवियत के साम्यवाद को पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता। निरंकुशता किसी भी तरह की हो उसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता है। यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ में साम्यवाद को अच्छे से लागू न किया गया हो। लेकिन इसके माध्यम से सांकृत्यायन जी ने दबे कुचले वर्ग की समस्याओं को एक आवाज दी है।

पुस्तक में बीस कहानियाँ हैं और उनके बीच में कुछ सौ वर्षों का अंतराल दिया गया है। इन कहानियों के मध्य परिवर्तन विश्वसनीय बन रहता है। 8000 वर्षों के समय में लेखक ने पूरे इतिहास का एक निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है। कहानियों की शैली में पर्याप्त विविधता दिखती है। विवरण, वार्तालाप, आत्मकथा, प्रपंच आदि के माध्यम से लेखक ने लोगों की सोच को व्यक्त किया है और समाज में आते हुये बदलाव पर लोगों की प्रतिक्रियाओं को दिखाया है। पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने कहानियों के स्रोतों के बारे में लिखा है।


Spiti River
Spiti River

We went close to the Spiti River. Spiti River originates near Kunzum Pass and flows in the southeast direction before it meets Sutlej River. The dark color water flows over the pebbles peacefully. This tranquility is a characteristic of the Spiti valley and its deep relationship with Buddhism. As there is not much rainfall in the Spiti Valley, the river gets most of its water from the Himalayan glaciers and many streams join it. Pin river is one of the most significant ones to join it. We had read somewhere that Pin Valley National Park also provides beautiful views but we could not go there. Pin Valley starts near the Dhankar Gompa in Spiti Valley. Spiti River occupies only a small portion of the bottom of the valley. The similar pebbles near the course of the river suggest that either the water level of the river increases as some point of the year or the river has changed its course. Normally in India, September is one of the months when rivers carry a huge amount of water because of the monsoons. The same cannot be said about Spiti River.

Unlike Kye Gompa, Tangyurd Gompa, and Dhankar Gompa which are situated at cliffs, Tabo monastery is at the bottom of the valley. Tabo monastery was built in 996 AD and that makes it the oldest in India. A few years back it celebrated its thousandth anniversary which was attended by the Dalai Lama. Inside the monastery, we were allowed only to visit the main temple. There was a big buddha statue and the temple was naturally lit. We were told that there were old wall-paintings in Tabo monastery, of which we could only see glimpses in the temples. There were stupas built inside the monastery. Like Dhankar monastery, Tabo monastery also belongs to Gelugpa sect. Due to its very old wall-paintings and manuscripts, it is also called the Ajanta of Himalayas.

Tibetan Buddhism is the religion of this part of the India and also of the Ladakh, Sikkim, Tibet and parts of Nepal. The sixth century onwards, the rulers of Tibet showed interest in Buddhism for various reasons including their marriage to Buddhist princesses. Then a tantric Padmasambhava from India arrived in Tibet and preached Buddhism in Tibet. Later on, folk elements were assimilated in Tibetan Buddhism. Tibetan Buddhism is different from the Buddhism practiced in other parts of the world like Sri Lanka and South-East Asia. Buddhism spread in these areas much earlier and is based on the early interpretation of Pali Canons. Tibetan Buddhism was inspired from Indian Buddhism which in turn borrows few elements from Hinduism like multi-armed statues of deities. Tibetan Buddhism believes in the reincarnation of Dalai Lama.

Keeping up the spirit of trying new things in the trip, we tried Thukpa in Tabo. Thukpa is a noodle soup with its origin in Tibet. Apart from the noodle, it contained tomato, capsicum, and few other ingredients. In Tabo, there are only a few places to eat. Someone told us to go to a home where they provide some food items. It was a small house. The Dhaba was operated by the family only and not many people were dining there. We did not find too many tourists in Tabo. We might have been there in the off-season or Tabo is still not that popular destination. Few houses in Tabo had apple gardens. Tabo was the last destination of our trip. The road from Kaza to Tabo goes to Nako also which is very close to India-China border and then continues to Shimla as part of the Hindustan Tibet Road. It was time to return to Manali.

When I look back and remember the days spent in Spiti Valley, it brings a joy and satisfaction. I do not know how to summarize the trip in a paragraph and I would not dare to. Probably my remembering-self has remembered too many things. I do not know what to say about my experiencing-self because whatever bliss it achieved was left there in the Spiti Valley. Those high barren mountains; those long and narrow roads and paths on pebbles; those peaceful and crystal clear streams; those villagers and their hospitality; those Gompas and learned lamas; those high-altitude lakes and reflection of mountains in them; those deep valleys with layer after layer of its sides telling the history of tectonic activities; those strong winds making their mark on the mountains; everything is etched in my memory like all of this happened only a few days back. When one comes to the Himalayas, a part of oneself is forever indebted to nature. And in that moment of gratitude, I promised to return to the Himalayas, again and again.
The entrance of Tabo Monastery
The entrance of Tabo Monastery
Tabo Monastery
Tabo Monastery
Stupas in Tabo Monastery
Stupas in Tabo Monastery


Dhankar Monastery and the confluence of Spiti and Pin rivers
Dhankar Monastery and the confluence of Spiti and Pin rivers

In the local language of Spiti Valley, Gompa means a monastery. Dhankar Gompa is also an old monastery like others in the region. Belonging to Gelugpa sect, it probably dates back to 12th century. 25 kilometers from Kaza, towards the road to Tabo, there was a diversion for Dhankar Gompa. It was situated on a cliff overlooking the confluence of the Spiti and Pin rivers. Few hundred meters below the Gompa, there was Dhankar village. In the Dhankar village, there was the same pattern of white houses with step farms in between. In the local language, Dhankar means a fort on a cliff. Near Dhankar Gompa, there were other structures too like a fort. Do not compare it with the usual forts that you have seen. Built on the cliffs with a small area at the top, forts in the Spiti Valley are bound to be small. It would have been very difficult to transport materials for building a big fort at such height and so far-removed from traditional population centers. Also, the number of persons that these forts had to host was small. Once upon a time, the Spiti kingdom was ruled from Dhankar. Inside the Gompa, near the entrance, there was a chamber of protecting deity. Supported on the pillars from inside, Dhankar Gompa also houses a small museum.

There is a lake near Dhankar village. It is a high-altitude lake named after the village. The way to Dhankar lake starts near the guest house. We decided to trek. The trek was, by no means, easy. Although, it was not too long and was not too steep, but at the heights above 4000 meters ,if one has not become used to thin air, then such treks are difficult. The water of the lake was very clear - so clear that you can see the reflection of hills on the opposite side. Half of the lake was shadowed by the hills and that shadow was increasing. Sunset was approaching. There was a small Pagoda-like structure near the lake and the beautiful colorful prayer flags around that. The pattern of thorny bushes near the lake was interesting. If you would see the barren land you would say no vegetation is possible here but then you would see these bushes artistically sprinkled here and there.

Returning from the lake, the lunar-shaped village of Dhankar and the Gompa were seen in the background of the confluence of Spiti and Pin rivers. This scene was the nature’s imagination at its best. It looked like the picture coming straight from the artist's canvas. In the valley below two rivers met and decided to continue their journey together peacefully forever. In the valley above, men met the religion in search of the peace. Men came to the abode of enlightened Lamas to be guided in their spiritual journey and the fire of knowledge was kindled in their souls. Men came to the Gompa, dwarfed by the high mountains and unable to move out for months in snowy winter. Men climbed the cliff to recite a verse in the worship of Avalokiteśvara. When men met religion in its true sense, it was like men met nature. The peace was established in these unapproachable mountains. That peace and tranquility are what attract the travelers today.
There is this thing about sunrise and sunset in the Himalayas. Because of high mountains on both sides of the valley, it is very difficult to see the sun rising. When you can actually see the sun, till then it is already a bright day. So a sunrise does not have the feeling of light fighting the darkness or slow spread of the light in all directions. I remember being awake in Rishikesh, Uttarakhand once to see the sunrise but when we had the first glimpse of sun, the day had already begun. The beautiful thing about sunrise in the Himalayas is the reflection of sunlight on snow-clad mountains which is reddish in color. This we had witnessed in Kaza and a few years back in Ukhimath, Uttarakhand. Like the sunrise, sunset also is different from the sunset that one is used to seeing. The sun hides behind mountains well before the first shadow of darkness creeps in. By the time we reached Dhankar Lake, a portion was covered by the shadow of mountains. This shadow only became larger. One starts to feel the chill. After sunset, the strong and cold winds take over.

While going to Tabo from Dhankar Village we saw few flex boards outside the fences surrounding trees. Seeing such tall trees was a surprise in itself. The location of Spiti Valley is such that the Monsoonal clouds do not cause rain here. The Harsh climate and small population mean a large area remains without any vegetation cover. Throughout our journey in the Spiti Valley, we did not see any place where you see grasses, bushes, or trees as you normally see elsewhere in the Himalayas. Those flex boards had details about the Desert Development Schemes of the government. Later when I searched about this, I got to know that governments are spending crores of rupees for this scheme. It creates a green cover and provides employment to the local people.
Dhankar Village
Dhankar Village
Dhankar lake
Dhankar lake
Spiti river from Dhankar Monastery
Spiti river from Dhankar Monastery


Buddha statue in Langza village
In the second part of this series of travelogues on Spiti valley, I said that I will talk more about remembering and experiencing. Normally, we do not separate these two aspects. In his book Thinking Fast and Slow, Daniel Kahneman talks about two selves - experiencing-self and remembering-self. Experiencing-self lives in the moment and remembering-self keeps those moments in the memory. That is what we cherish after a long time. What Kahneman says is that we focus more on remembering than on experiencing. To prove the point he says that we are blind towards the time-integral of happiness or sadness  caused by a stimulus. Say, you are moderately happy or sad for a year in one condition. In the second condition, you are extremely happy or sad for a month. It is more probable that five years hence, you will remember the second condition. We humans are too prone to peaks in happiness or sadness. This is the background for the discussion that I intend to take up in this part of the series. If we are to remember only peaks of happiness or sadness why do we want to live a well-settled life which does not contain surprises? The things which we normally call surprises are expected surprises - a contradictory term but yes, that is true. Where should we invest more time and resources - in remembering or in experiencing the moments?

While visiting few villages near Kaza, this struggle between my two selves got worse. When you see those mountains, villages in a valley and a small road disappearing under a hill you become awestruck at once. There is a feeling of being mesmerized. After few days you do not remember all those experiences exactly. You only remember that there was something which was very beautiful but when you try to remember what was it exactly, you are left to find words and memories, searching for those moments. Here comes the question again - if we cannot remember those feelings, should we stop on hill trail and think about the surroundings? People prefer the remembering-self and that might be the reason behind why tourists as soon as reach a place, start clicking pictures without even seeing the place fully. There is a feeling to capture all those moments into some sort of mechanism where it can be taken out of the memory black-hole again, and again. Pictures are one such mechanism. I have assumed that people prefer the remembering-self. At least that is what see around on a trip. That would be a generalization. I leave it up to you to decide on your next trip whether you feed your experiencing-self or remembering-self.

13 kilometers from Kaza, there is a small village - Langza. With a population of around 130, this village is first that one encounters while coming from Kaza. There are two parts of the village - Lower and Upper Langza. Lower Langza is near the fields and is few meters below the road from where you see the village. The Upper langza was closer to the big statue of Buddha. In this village and most of the other that we passed by while coming to Kaza, the outer decoration pattern of the houses would remain same. The houses will be painted white. That white color is somewhat worn out maybe because of six months of snowfall or maybe it was painted a few years ago. At the point where the walls met the roof, there would be a strip painted gold or brown. When you see from a distance a row of similar houses, you can wonder about their coherence to a tradition. The Buddha statue was considered to be hundreds of year old by the villagers. The location of the statue was good. It was placed there overlooking the village, then farms, then roads and then the tall mountains of Spiti village. On the internet, I found that Langza village is famous for marine fossils which are found in abundance here. I did know this when I was in the village. Few kids brought something to sell near our vehicle. We thought that these were small craft items and gave it a pass. With the benefit of hindsight, I think they might have been the fossils. 

Next, we went to the Koumik village. It was one of the highest inhabited villages in the world. Few claim it to be the highest one but that is disputed. The village is situated at the edge of a deep canyon. There were few farms and few houses in this village. While roaming around in this village, we met a person who has invited us inside his house for the tea. We were also curious to see the house from inside. The house had all the provisions for long snowy winters such as a small fireplace in the drawing room and thick mud walls. Most of the villagers had gone to bring back the yaks from the other side of the hill. Our host was studying in Shimla and was there in his native village for few days. He said he would leave before the snowfall starts. I remember one more interesting thing about him. Whenever we would ask him how much time will it take to walk to a hill, he would say, for example, that one hour for him and three hours for us. That was true but we found it interesting that he already took account of our difficulties at high altitude. We enjoyed his hospitality. It does not happen that frequently in India when few strangers are allowed in one's house.

Tangyud Monastery is situated in Koumik village. Along with the monastery at Kaza, it is one of the few monasteries of the Sakya sect left in Spiti valley. Like other monasteries in the region at Key and Dhankar, Tangyud Monastery is also a fortified structure, suggesting that in ancient times there were attacks on monasteries or that religious head was also the ruler of the country. Tangyud Monastery is made up of mud walls and boundary is in a rectangular shape. Inside the monastery, you find all those colorful objects which we saw in other monasteries in Spiti. Built in the 14th century, it is one of the highest monasteries in India. 

The last village that we visited was Hikkim. Hikkim village contains the highest post office in the world. That post office is manned by an old employee of the postal department. There were many colorful cards with images of the places in Spiti. He was enthusiastic enough in showing us those cards, but it was difficult for him to find a plain postcard - a relic of the gone era. I thought that I will add a new ritual to my trips - to send a postcard from that place. I started that from Hikkim. That post card never reached home. I tried again from Pondicherry. Even that did not reach home. I thought that it is now outdated to send a postcard. Even the postal department might think that a person is not serious enough in communicating something if he is sending a one-rupee postcard. Hikkim village is also the world's highest polling station.
Near Langza village, Spiti Valley
Near Langza village, Spiti Valley
Inside Tangyud Monastery, Koumik
Inside Tangyud Monastery, Koumik
World's highest post office, Hikkim
World's highest post office, Hikkim


चलते चलते लहरें सहसा रुक गईं
तेज चलती हुई हवा थम गई चुपचाप
आपस में गुँथे हुये सब पहाड़
ढीले होकर देखने लगे आकाश
उड़ते हुए रेत के कण किनारे से देखने लगे
रास्ते सब मुड़कर आने लगे झील की तरफ़
चहकते हुये जीवों की सब बोलियाँ छीन ली गईं
और तब उस क्षण झील की एक लहर जागृत हुई।

और सोचने लगी
कि क्या जन्म और पुनर्जन्म की व्याख्या उसके लिए भी है
क्या किनारे के पत्थरों से बार-बार टकरा जाना
पिछले जन्मों का परिणाम है
या आगे आने वाले जन्मों के लिए एकत्र की जा रही जमा पूँजी है,
क्या उसका मचलना,
उसका सूरज की किरणों में नाचना,
ये सब वह खुद कर रही है
या कर्ता कोई और है, वह बस निमित्त मात्र है,
उसको यह भी जिज्ञासा हुई
कि उसके जीवन की समीक्षा कैसे होगी
रोज एक ही कार्य निर्विकार रूप से करने पर,
निरंतरता के लिए प्रशंसा होगी
या बार-बार दोहराने पर
मौलिकता के अभाव के लिए आलोचना होगी।

उसने अपने चारों तरफ देखा
और खुद से पूँछा
कि क्या वह सुन्दर दृश्य में बिंध जाने के लिए
पहले से तय एक भूमिका निभा देने के लिए ही है बस?
कभी खुद तय करके किसी धारा में बह पायेगी वह?
उसे पहाड़, हवा, रास्ते, रेत के कण
सब की दिनचर्या अपने जैसी लगी
और उनसे उत्तर पाने की उम्मीद खोकर
वह और भी निराश हो गई।

इन गूढ़ प्रश्नों के उत्तर लहर को
न मिलने थे और न मिले,
रास्ते फिर चलने लगे दिशाहीन
जीव फिर से आवाज पा गए और निरर्थक कुछ कहने लगे
पहाड़ों ने फिर से लहरों को घेर लिया
रेत के कण फिर उड़ने लगे तमाशा समाप्त देखकर
हवायें फिर से पगलाकर सरसराने लगीं
और लहरें फिर चल पड़ीं होकर उदास।

मगर चलने के पहले
एक लहर मेरे पास आ गई
और तपाक से बोली,
"तुमने फिर से मुझमें अपनी छवि खोज ली न ?"


Kye Monastery, Spiti Valley
Kye Monastery, Spiti Valley
In and around Kaza, we met many foreigners. Near the main monastery in Kaza, we met a group of Israeli tourists who came to India after their compulsory conscription was over. This is the trend with tourists from Israel as we saw in Kasol too. While talking to one of them we got to know that he had plans to go to Rishikesh. He was in India for a month. He told that “You work between two trips. That is how you live.” In Kaza, there were programs to know more about the culture of Spiti valley. Not only know that as in reading somewhere but living those experiences. For example, there was a program where you can live like a Buddhist monk for a day and get to know more about Buddhism. 

We got to know these things by a list of such programs handwritten a medium-sized slate outside a small cafe. The cafe was not bigger than an average grocery shop in an average Indian city. To inquire more about these programs we went inside. To my utter surprise, this program was conducted by a lady from the Netherlands. A tailor-made tour of an Eastern cultural practice by a Westerner who came to India for a month. That’s what it was. She was there with her husband and her little son. I hardly meet a person from India who goes to travel for a month. So I am assuming that it is not too common. Maybe those who come to India from outside come with a plan of a month or so. If they do not have sufficient time, they may prefer places in their own country or in nearby countries. 

The local market of Kaza was similar to the market that we see in hill stations of the Himalayas. Wooden crafts items like key chains, cutlery, and showpieces, were in abundance. Being a hill station it was common to see shawls and other winter clothing. Spiti valley is not too much known to the outside world as compared to Ladakh, but it is getting popular. The Greater number of visitors brings the diversification of market and the options increase like for dining. I wish that Spiti valley remains what it is - serene, secluded and less crowded by visitors. 

Back in the hotel, there was a dining-room-cum-cafe. There we talked to the owner of that hotel Mr. Tsering Bodh. While deciding on the best route to Kaza, we chose the one via Rohtang La as it was closer to Kaza from Manali. The other one was from Shimla which was part of Hindustan Tibet Road. As we had asked a contractor in Batal, we asked Tsering which one was better. He told us, "If you see the quality of the road, definitely Hindustan Tibet Road is better as it is well kept. The road from Manali to Kaza is not very good and some parts of the road are very bad, but this road offers you more diversity. You cross passes, see rivers and pass through places where there are no roads. Compared to this the road from Shimla is monotonous." We agreed with him. A journey is not only about arriving. A lot has to be experienced in the travel itself. In that hotel, there were encyclopedias dedicated to the Spiti valley. We got to know few things about the history of the valley. Also kept were the collections of photographs taken in Spiti valley, hard bound like an old epic. Indeed it was epic, where the picture is shown and verses have to be formed by you. 

In the hotel, folk music was being played. Being a fan of the folk music of India, I asked Tsering if he could share the songs with me and he obliged happily. When I returned from Spiti Valley, I played those songs. Needless to say that I could not get the lyrics of most of the songs as they were in the local language of Spiti valley, but music is much more than the language. It is about the experience when those instruments are played in harmony. It is about feeling the ascent and descent of the voice of the singer and then sink in that. Few of those songs were religious in nature as I deduced from the repeated chant of 'Buddham Sharanam Gachchhami, Dhammam Sharanam Gachchhami.' This is the feature of the folk songs of North-Indian Plain too. Most of the folk songs are about deities or a historical hero. Tsering told me that few songs are recordings of the festivals that are celebrated in the Kaza or nearby villages. 

About 15 kilometers from Kaza, Kye monasteries is situated. Variably pronounced as Ki, Key, and Kee, Kye monastery is considered to be more than a thousand years old. When you enter the monastery, there is a board which has details of the history of this monastery. The history tells us about the repeated sacking and looting of this monastery by different forces. This monastery had to change its affiliation to a sect when it was attacked by a more powerful sect patronized by Mongol kings. Belonging to Gelugpa sect today, this is a major place of learning for young Lamas who have to go to Tibet for higher studies in religion. The Kye monastery is situated on a hilltop. In the backdrop of high mountains this monastery and related settlements, look so small and it is a perfect symbol of the harmonious relationship between man and nature. While on the roof of the monastery, you can get the panoramic view of the valley and it needs to be said that the views from each side of the Spiti river in the valley complete each other. This whole picture looks so poetic that I should call nature a great poet. 
Spiti Valley from Kye Monastery
Spiti Valley from Kye Monastery
Top of the Kye monastery
Top of the Kye monastery
Inside Kye Monastery
Inside Kye Monastery