‘कवि-मन’ अज्ञेय जी के डायरी अंशों का संकलन है। साधारणतया हम किसी रचनाकार की कृति को तभी देखते हैं जब वह रचनाकार उस से पूर्णतया संतुष्ट होता है और उसे लगता है कि अब इसे पाठकों के समक्ष लाया जा सकता है, लेकिन किसी लेखक की डायरी में उसके विचार, उसके सोचने के तरीके का पता लगता है। ‘कवि-मन’ में हम अज्ञेय जी के इसी रूप से रूबरू होते हैं। इस संकलन में अज्ञेय जी ने समाज, राजनीति और साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर अपनी राय रखी है। कई जगहों पर लघुकथायें हैं जिन पर बाद में अज्ञेय जी ने शायद विस्तृत कहानियाँ लिखी हों। कुछ कविताओं के अंश हैं, जो शायद पूर्ण होने के बाद किसी काव्य-संकलन में स्थान पा गए हों।
विभिन्न ‘टीपों’ में अज्ञेय जी का राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध गुस्सा झलकता है। ऐसे ही कुछ विचार हमने उस दौर के अन्य साहित्यकारों की रचनाओं में भी देखे हैं, जैसे दुष्यंत कुमार की ‘साये में धुप’ और धर्मवीर भारती के ‘ठेले पर हिमालय’ के साहित्यिक निबन्ध इत्यादि। एक ‘टीप’ देखिये - “लेखक है? आज़ाद है? मारो साले को। पिटाई से न सधे बदनाम करो; संखिया-धतूरा कुछ खिला दो, पागलखाने में डाल दो। ये सब भी बेकार हो जायें तो शाल-दुशाला, पद-पुरस्कार से लाद कर कुचल दो - वह तो ब्रह्मास्त्र है।” अज्ञेय जी आज़ादी की लड़ाई में स्वयं जेल गए थे इसलिए स्वतंत्रता के बाद की सरकारों से उनकी उम्मीदें भी अधिक थीं, जिन्हें पूरा होते न देख उनका निराश होना स्वाभाविक था।
अज्ञेय जी ने पश्चिमी और भारतीय साहित्य के बीच तुलना को लेकर भी सवाल खड़े किये हैं। उनका कहते हैं कि भारतीय साहित्य पश्चिम के साँचे में क्यों ढले। भारतीय साहित्य का एक अलग और स्वतंत्र स्वरुप भी तो हो सकता है। शायद अज्ञेय जी का ऐसा सोचना सही भी था क्योंकि जिस परिवेश में भारतीय साहित्य की रचना हुई थी वह पश्चिम के वातावरण से बहुत भिन्न था और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के खांटी गँवई माहौल वाली कहानियाँ या उपन्यास पढ़ते समय आपको यह अहसास हुआ भी हो; या कभी धर्मवीर भारती के उपन्यास पढ़ते समय लगा हो कि यह परिवेश पश्चिम के साहित्य में नहीं उमड़ सकता। डायरी की एक कतरन में अज्ञेय जी ने पौराणिकी का अध्ययन करने वाले लोगों की पुनर्लेखन की मनोवृत्ति पर भी प्रहार किया है। उनका कहना है कि ये धार्मिक रचनायें उस समय के परिवेश के लिए उचित थीं, उसका इस समय से तुलना करना सही नहीं है।
इन डायरी के अंशों में अज्ञेय जी को अपने कवि होने का बखूबी अहसास है। उन्होंने कई ‘टीपों’ में समाज को एक कवि के नज़रिए से देखने का प्रयास किया है। और कई अंशों में तो लघु कविता का विषय ही यही है कि किसी सामान्य घटना को कवि कैसे अलग तरह से देखता है। शायद कविता के प्रसंग ऐसे ही निकलते हों। अज्ञेय जी ने एक कवि के दायित्व को भी कुछ ‘टीपों’ में स्थान दिया है। अज्ञेय जी एक सच्चे विद्रोही थे जिनकी ज़िन्दगी और जिनकी रचनायें काल और स्थान की सीमाओं को लाँघने के लिए बेताब थी और जिनके लिए प्रचलित परिपाटी को चुनौती देना लेखनी का एक उद्देश्य था। अज्ञेय जी सोचने के लिए मजबूर करते हैं। एक जगह वह सवाल करते हैं कि जैसे जनता को वही सरकार मिलती है जिसके वह लायक होती है, तो क्या समाज को वही साहित्य मिलता है जिसके लिए वह योग्य होती है।
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