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Jun 21, 2016

बूँद - 3

मुहार खुलने की बस देर थी
एक महीन बौछार अंदर चली आयी
(मुझे बूँदों के समूह का स्वागत करना चाहिये था)
और आयी तो अकेले नहीं आयी
अपने साथ ले आयी ठण्डी नम हवा
तड़ित आघात की गड़गड़ाहट
बारिश से भीगी किसी डाली का सलाम
और किसी के गेसुओं की मोहक खुशबू
अचानक हुये इस परिचय से
मैं चौंक सा गया था
एक सिहरन सी हुयी
मैंने झट से दरवाजा बंद कर लिया था|

सोचता हूँ यूँ दरवाजे की ओट में
कि मेरे मन ने भी तो कितनी दीवारें खड़ी कर ली हैं
सहूलियत, अहमियत, असलियत की दीवारें
(हाँ कोई पुराना दर्द उभर रहा है)
यदि आदमी सूखे लट्ठे हों तो
नियति लकड़हारा बनकर उनमें मेल करा सकती तो है
यदि आदमी दो दूरस्थ तारें हों तो
जिजीविषा गुरुत्वाकर्षण बन उन्हें जोड़ सकती तो है
पर वो आदमी है, जीवित है
पूर्वाग्रह की दीवारें भी तो इतने साल से बनायी हैं
(कोई कलम के माध्यम से मेरे मन में झाँकने की कोशिश कर रहा है)
वो देखो अमलतास के फूलों का एक गुच्छा
परछाईं बनकर खिड़की में मुझसे मिलने आया है|

बौछार अभी भी हो रही थी
दरवाजे के नीचे गिरती बूँदों से पता लग रहा था
दरवाजा फिर से खोल दूँ तो?
मन की दीवारें सब तोड़ दूँ तो?

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