(इस ग़ज़ल की प्रेरणा 'ज़फर' की ग़ज़ल 'यार था गुलज़ार था' से ली गई है। ग़ज़ल का मीटर भी वहीं से लिया गया है।)

साहिल था, मौज थी, आराम था, मैं न था
आयी फिर आवाज़ रूह की, जाम था, मैं न था।

सफ़र और हमसफ़र में तमाम दूरियाँ छा गयीं
साथ ही बैठे थे हम, वो वहीं था, मैं न था।

सुना कि फिर मेरी नज़्म पर मचा है कोहराम
इसके पीछे बज़्म की आबो-हवा थी, मैं न था।

फ़ैसला सुनाकर क़ाज़ी ने पूछा शिर्क़ का मक़सद
हँसकर कुछ न कहा, मुज़रिम इश्क़ था, मैं न था।

उड़ गये सभी अज़ाब को ज़मीं पर छोडकर आखिर
ख़ुशनसीब इस जहां में बस परिंदे थे, मैं न था।

इतना आसां क्यों है, एक खूंटे से ही बंध जाना
क़ैद तो बस मेरा जिस्म था दुनिया में, मैं न था।

धूप और छाँव में जीवन के मानी तलाशते मिला
फ़लसफ़े में डूबा आवारा यायावर था, मैं न था।

बज़्म - assembly; शिर्क़ - polytheism; अज़ाब - pain


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