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Jul 15, 2016

पुस्तक समीक्षा : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित 'आँगन के पार द्वार'

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘आँगन के पार द्वार’'आँगन के पार द्वार' सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का लिखा हुआ एक काव्य-संग्रह है जो कि 1961 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह में अज्ञेय जी की 1959 से 1961 तक की लिखी हुई कविताओं का संकलन है। वस्तुतः जिन कविताओं की रचना 'अरी ओ करुणामयी प्रभामय' के बाद हुई थी उनको इस पुस्तक में स्थान मिला है। इस पुस्तक के लिए अज्ञेय जी को 1964 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह काव्य-संग्रह तीन भागों में विभाजित है - अन्तःसलिला, चक्रान्तशिला और असाध्य वीणा।

प्रथम भाग 'अन्तःसलिला' में अज्ञेय जी ने अधिकांशतः प्रकृति के उपमानों को लेकर मानवीय चिंतन का एक रूप पेश किया है । झील, सागर, साँझ आदि से शुरू होकर कविता किसी व्याकुलता या यादों की उलझन में समाप्त होती है। इनमें अज्ञेय का प्रकृति प्रेम भी झलकता है और मानव स्वाभाव से गहरा परिचय भी। 'भीतर जागा दाता', 'बना दे चितेरे' और 'अन्तःसलिला' इसी प्रकार की कवितायेँ हैं। 'पास और दूर' और 'पहचान' में अज्ञेय जी किसी पुरानी याद के बारे में कहते हैं। प्राकृतिक और कृत्रिम संसारों का मिलन हमेशा पप्रसन्नतमूलक नहीं होता है, यह 'सूनी-सी साँझ एक' में दिखता है -
"पर उस सलोनी के पीछे-पीछे
घुस आयी बिजली की बत्तियाँ
बेहया धड़-धड़ गाड़ियों की:
मानुषों की खड़ी-खड़ी बोलियाँ।
वह रुकी तो नहीं, आयी तो आ गयी,
पर साथ-साथ मुरझा गयी।
उस की पहले ही मद्धिम अरुणाली पर
घुटन की एक स्याही-सी छा गयी।"

दूसरे भाग 'चक्रान्तशिला' में कविताओं का शीर्षक नहीं है बस क्रमांक है। कुल मिलकर 27 कवितायेँ इस भाग में हैं। इस भाग में एकांत, मौन और चिंतन-प्रधान कवितायेँ सम्मिलित की गई हैं। यूँ तो प्रकृति के उपमानों का जमकर प्रयोग इस भाग में भी हुआ है लेकिन यह कहना उचित होगा कि मानव की भावनाओं ने प्राथमिकता पायी है। एकांत चिंतन के जो परिणाम होते हैं वो अज्ञेय जी की इन कविताओं में दिखते हैं और कहीं न कहीं इस चिंतन में खो जाने का निमंत्रण भी है। सागर तट पर बैठकर कवि ने लिखा -
"तब संध्या की तीखी किरण एक
उठ
मुझे विद्ध करती एक सायक-सी
उसी सन्धि-रेखा से बांध
अचानक डूब गयी।
फिर धीरे-धीरे
रात घेरती आयी, फ़ैल गयी!
फिर अन्धकार में,
मौन हो गयी धरा,
मुखर हो सागर गाने लगा गान।"

अंतिम भाग ‘असाध्य वीणा’ एक लम्बी कविता है, जिसमें केसकम्बली द्वारा वीणा बजाते समय सारे दरबार के मंत्रमुग्ध हो सुनने का वर्णन है। इस कविता में एक कलाकार के विकास में प्रकृति का कितना योगदान हो सकता है, वह अज्ञेय जी ने कहीं दूर प्रकृति की गोद में बसे हुये गाँव के वर्णन के माध्यम से दिखाया है। केसकम्बली तो वैसे भी एक ऐतिहासिक पात्र हैं। कहीं न कहीं इस कविता के माध्यम से, अज्ञेय जी ने अपनी कविता के असर को भी सामने रखा है। उनका यह मानना है कि यही कविता अलग अलग पाठक अपने अपने ढंग से उसके अलग अर्थ निकाल सकते हैं। जो जिस परिस्थिति में है उसे कविता का अर्थ उसी परिप्रेक्ष्य में समझ आयेगा। कविता के अंत में अज्ञेय जी कहते हैं कि ‘यों मेरी वीणा भी शांत हुई’, जैसे कि श्रोताओं ने वीणा का संगीत अज्ञेय जी की कविता को मानकर सुना ।

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