'अशोक के फूल' हजारीप्रसाद द्विवेदी का लिखा हुआ एक निबंध संग्रह है। हिंदी साहित्य जगत में हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वह हिंदी साहित्य के उन गिने चुने चिंतकों की परंपरा के थे जिन्हें आचार्य कहकर सम्मान दिया गया था। द्विवेदी जी की रचनाओं में अथाह ज्ञान और उसके पीछे की गयी कड़ी परिश्रम साफ़ झलकती है। कुछ विषयवस्तुएँ ऐसी होती हैं जिन्हें हिंदी के साहित्यकार अन्य विषयविदों के लिए छोड़ दिया करते थे, मसलन इतिहास, शिक्षाशास्त्र इत्यादि। द्विवेदी जी ने इन विषयों को भी अपनी लेखनी का विषय बनाया। उसके तीन परिणाम हुए। एक तो सामान्य पाठक तक भारतीय इतिहास को पहुँचाना सुगम हो गया क्योंकि कितने ही पाठक इतिहास विशेष की पुस्तकें पढ़ते होंगे। दूसरा, हिंदी के साहित्यकारों में अपने इतिहास और अपनी संस्कृति के प्रति जागरूकता बढ़ी और साहित्य में निज विषयों का प्रयोग करने की परम्परा का सूत्रपात हुआ। राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में भी इस इतिहास की झलक देखी जा सकती है, हालाँकि उस पर कुछ आलोचकों ने विवाद उत्पन्न करने की कोशिश भी की। तीसरा, ऐतिहासिक खोजों को एक बड़े समूह द्वारा समालोचित किया जाने लगा जिससे उसकी गुणवत्ता में सुधार की आशा की जा सकती थी। ऐसा नहीं था कि उसकी गुणवत्ता ख़राब थी किन्तु किसी सिद्धांत की जितनी ज्यादा समीक्षा होगा वह उसके लिए उतना ही अच्छा होगा।
'अशोक का फूल' निबंध संग्रह में द्विवेदी जी ने विविध प्रकार के विषयों को छुआ है। उन्होंने प्रकृति के लिए 'अशोक के फूल', 'वसंत आ गया है' और 'एक कुत्ता और एक मैना' जैसे निबंध लिखे हैं - लेकिन इन निबन्धों में भी बात सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रही है - तो साहित्यिक समीक्षा के लिए 'आलोचना का स्वतंत्र मान' और 'साहित्यकारों का दायित्व' जैसे निबन्धों में उन्होंने समकालीन हिंदी साहित्य का अनुभव निचोड़कर रख दिया है। इतिहास को आधार में रखकर लिखे गए 'भारतीय संस्कृति की देन', 'संस्कृत का साहित्य' और 'भारतीय फलित ज्योतिष' निबन्धों में द्विवेदी जी ने इतिहास के सूक्ष्म अध्ययन का परिचय देते हुए कई घटनाओं को, जो प्रथम दृष्टतया बहुत अलग जान पड़ती हैं, एक साझा पृष्ठभूमि प्रदान की है। भारत के युग प्रवतकों जैसे कबीर और रवींद्रनाथ टैगोर को जगह जगह पर उद्धृत किया गया है, बल्कि टैगोर पर पूरा एक निबंध लिखा है। इसके पीछे लेखक का शांतिनिकेतन में पाठन करना एक कारण हो सकता है।
इस पुस्तक के प्रकाशन के समय देश बदलाव के दौर से गुजर रहा था। हिंदी साहित्य में नव चेतना का जागरण हो रहा था। देश स्वाधीन हो गया था। इस समय के साहित्यकारों के दायित्व पर द्विवेदी जी ने विशेष बल दिया है। द्विवेदी जी का कहना है कि साहित्य को हमेशा किसी बड़े उद्द्येश्य की पूर्ति के लिए कार्य करना चाहिए और उन्होंने मानव की सेवा को ही वह लक्ष्य माना है। एक निबंध में द्विवेदी जी ने कहा भी है कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है और साहित्य साध्य नहीं है बल्कि साधन है और उसको उसी रूप में प्रयोग करना चाहिए। साहित्य का उद्द्येश्य विलास का न होकर चरित्र-विकास का होना चाहए। इसीलिए उन्होंने बाल साहित्य के विकास पर जोर दिया है। साथ ही साथ उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य को भारतीयों द्वारा पढ़े जाने और उनके अर्थ निकालने पर जोर दिया है। पश्चिम के कई विद्वानों ने इस क्षेत्र में कार्य किया है और यह सराहनीय है लेकिन उनके लिए प्राचीन भारतीय साहित्य संग्रहालय में रखने की वस्तु है जिसकी सुंदरता की सिर्फ तारीफ की जा सकती है जबकि हम भारतीयों के लिए यह अपनाने की चीज है।
इस पुस्तक के निबन्धों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि द्विवेदी जी स्वयं अनेक रूढ़ियों में विश्वास नहीं करते थे लेकिन फिर भी उन्होंने उन रूढ़ियों और परम्पराओं के पीछे के कारणों की पड़ताल की है। उदाहरण के लिए फलित ज्योतिष को लिया जा सकता है। निबंध के पन्नों में कभी यह नहीं लगा कि द्विवेदी जी की आस्था उनमें है लेकिन फिर भी उन्होंने उसके इतिहास का बारीकी से अध्ययन किया और कौन सी परम्परा किस क्षेत्र से आयी, कैसे आयी और क्यों अपनायी गई, यह उन्होंने बताया है। द्विवेदी जी के इस कार्य से कहा जा सकता है वह पुरातनपंथी नहीं थे लेकिन पुराने साहित्य को सिर्फ पुराना कहकर त्याग देना कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है और शायद एक सच्चे साहित्य मनीषी की यही पहचान है।
Nic but not at all good
ReplyDeleteRight
DeleteGoooooo
ReplyDeleteGoooooooood
DeleteBy mistake i forgot to put d in it
DeleteHi great reading your bllog
ReplyDelete👍
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