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Nov 20, 2016

रात - 1

एक मामूली वक़्त था और एक मामूली सी रात थी
जब तक नहीं आया था चाँद मुंडेर पर इस रात को।

एक रंग चाँद का और एक लहज़ा तुम्हारा किसी शब
हम ले आये हैं खींचकर फिर उसी मोड़ पर रात को।

एक हवा सर्द चली और एक हर्फ़ मेरे मन में लिखा
ये तन्हाइयों के मशविरे भी अब होने हैं इस रात को।

एक दुनिया कागज़ी पुरानी और एक छुआ जा चुका चाँद
दो सफ़ेद स्याह जैसी फ़र्क़ वाली बातें घुली हैं रात को।

एक साथ चराग़ का और एक बात कशिश-ए-महताब की
हमारी हसरतें भी सिमटकर रह गई हैं देखो इस रात को ।

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