1.
उषा के रंग की एक भट्टी
पूरब के कोने में
सृजन के श्रम में पुरजोर लगी है,
निकले हैं बादल, किरणें, समय और मानी
मचल उठते हैं चलने को
अपनी-अपनी दिशाओं की ओर
स्रोत से विद्रोह कहें
या विपरीत का आकर्षण
मनुष्य में ये भावना भी शायद प्रकृति से आयी है।
2.
एक नदी है
जिसकी लहरें रुकी हुई हैं
समय के नियम के विपरीत
जिसके ऊपर चलते हुए
हम खुद को समय-यात्री समझ बैठते हैं
कोई हवा चलती है
बादलों की बनी नदी बह उठती है
समय-यात्रा बस ख्याल है,
आकृति टूटती है,
समय बलवान है।
3.
रुई के फाहे
बिखरे हुए हैं तल पर
सूरज की किरणें रुई को सफ़ेद करने पर तुली हुई हैं,
नीचे शायद अँधेरा क़ैद होगा
कोने के भूरेपन-कालेपन से
शायद कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है,
भोर के कुछ समय बाद
रुई के फाहे हो जायेंगे अनंत में विलीन
विस्मृत
अँधेरे से लड़ने वाली अनंत इकाइयों की तरह।
4.
सूरज से निकली हुई किरणें
तुरंत अपने आप में आकार नहीं लेती हैं
क्षितिज से टकराती हैं
बादलों को दुलराती हैं
अंत में अपने रूप में आती हैं
हाँ शायद,
ब्रह्म को दिखाने का सूरज का ये तरीका होगा,
परिभाषा नहीं है,
आत्म के लिए ब्रह्म को परिभाषित करना
इतना भी आसान नहीं होगा।
उषा के रंग की एक भट्टी
पूरब के कोने में
सृजन के श्रम में पुरजोर लगी है,
निकले हैं बादल, किरणें, समय और मानी
मचल उठते हैं चलने को
अपनी-अपनी दिशाओं की ओर
स्रोत से विद्रोह कहें
या विपरीत का आकर्षण
मनुष्य में ये भावना भी शायद प्रकृति से आयी है।
2.
एक नदी है
जिसकी लहरें रुकी हुई हैं
समय के नियम के विपरीत
जिसके ऊपर चलते हुए
हम खुद को समय-यात्री समझ बैठते हैं
कोई हवा चलती है
बादलों की बनी नदी बह उठती है
समय-यात्रा बस ख्याल है,
आकृति टूटती है,
समय बलवान है।
3.
रुई के फाहे
बिखरे हुए हैं तल पर
सूरज की किरणें रुई को सफ़ेद करने पर तुली हुई हैं,
नीचे शायद अँधेरा क़ैद होगा
कोने के भूरेपन-कालेपन से
शायद कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है,
भोर के कुछ समय बाद
रुई के फाहे हो जायेंगे अनंत में विलीन
विस्मृत
अँधेरे से लड़ने वाली अनंत इकाइयों की तरह।
4.
सूरज से निकली हुई किरणें
तुरंत अपने आप में आकार नहीं लेती हैं
क्षितिज से टकराती हैं
बादलों को दुलराती हैं
अंत में अपने रूप में आती हैं
हाँ शायद,
ब्रह्म को दिखाने का सूरज का ये तरीका होगा,
परिभाषा नहीं है,
आत्म के लिए ब्रह्म को परिभाषित करना
इतना भी आसान नहीं होगा।
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