'कितने पाकिस्तान' कमलेश्वर का लिखा हुआ एक प्रयोगवादी उपन्यास है। इस उपन्यास को 2003 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। यह उपन्यास बाकी उपन्यासों से कई मामलों में अलग है। पहला, इसमें सामान्य घटनायें, जैसे उपन्यासों में होती हैं, नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं का लेखक के नज़रिये से वर्णन है। दूसरा, पात्र बहुत कम हैं। ऐसा कहना भी सर्वथा उचित ही होगा कि मुख्य पात्र समय है क्योंकि सारा कथानक उसी के इर्दगिर्द घूमता है। उपन्यास में सदियों से चले आ रही हिंसा और मारकाट के प्रति गहरा क्षोभ है। पात्रों की इस कमी को इतिहास के प्रसिद्ध व्यक्तियों को कटघरे में लाकर दूर किया गया है।
कहानी का संचालन एक पात्र अदीब करता है। जैसा कि नाम से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अदीब एक साहित्यकार या बुद्धिजीवी है जिसे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास है और उसे लगता है कि अनेक वर्गों में जनता को बाँटकर फायदा उठाया जा रहा है। अदीब को लगता है कि ऐसे समय में लेखकों, पत्रकारों और अन्य बुद्धिजीवियों को कुछ करना पड़ेगा। अदीब अगर नायक है तो सलमा को नायिका कहा जा सकता है लेकिन कथानक में उसे स्थान कम ही मिला है। सलमा के माध्यम से कमलेश्वर ने कृत्रिम सीमाओं को लेकर निराशा व्यक्त की है। अदीब और सलमा के वार्तालाप के माध्यम से लेखक ने समाज के नियमों में खुद को ढाल न पाने वाले लोगों की चिंता दिखायी है। कहानी में एक और पात्र है जिसे अर्दली के नाम से पुकारा गया है। यह एक मजबूत पात्र है जिसने जगह जगह पर लोगों के दोगलेपन को उजागर किया है।
अगर उपन्यास का सार निकालने की कोशिश की जाए तो यही आयेगा कि सदियों से चली आ रही विभाजन की परम्परा बंद हो और मनुष्य एक मनुष्य की तरह जीवित रह सके। धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, जाति के नाम पर, विचारधारा के नाम पर, भाषा के नाम पर और वर्ण के नाम पर विभाजन अब बंद होने चाहिये। कमलेश्वर ने अपनी बात को पुख्ता तरीके से रखने के लिये सम-सामायिक घटनाओं का उल्लेख किया है जैसे कोसोवो, पूर्वी तिमोर, सोमालिया, कश्मीर आदि जगहों पर हो रहे आंदोलन और प्रतिहिंसा। इसके मूल में जाने की लेखक ने कोशिश की है तो पाया है कि कहीं न कहीं किसी अन्य ताकत ने ये पहचान के संकट खड़े किये और फिर उसके बाद जब जनता विभाजित हो गयी तो उसका फायदा उठाया, वरना कोई कारण नहीं है कि दो अलग पहचान के लोग साथ नहीं रह सकते।
इतिहास जैसा हम जानते हैं और जैसा हमें पढ़ाया जाता है उसके प्रति भी कमलेश्वर ने अपनी राय दी है। मसलन अयोध्या जन्म-भूमि और बाबरी मस्ज़िद के विवाद के पीछे जो कारण बताया जाता है और जो अब राजनीतिक हो गया है उसको कमलेश्वर ने झूठ कहा है। मुगलकालीन कई अभिलेखों और पत्रों को उद्धृत करके यह बताने की कोशिश की गई है कि बाबरी मस्ज़िद की प्रचलित कहानी सही नहीं है। अगर यह सत्य है तो यह एक रुचिकर बात है कि इतिहासकारों का ध्यान अभी तक इस ओर क्यों नहीं गया और अगर गया भी है तो यह विचार मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पाये। कमलेश्वर ने यह बताने की कोशिश की है जनता को बाँटकर रखने से उन पर नियंत्रण करना कितना आसान हो जाता है। अगर कोई शासक लोगों को साथ लेकर चल नहीं पाता है तो वह धर्म का सहारा लेकर शासन करना चाहता है। कमलेश्वर ने यह बात दाराशिकोह और औरंगज़ेब के बीच खींचतान को केंद्र में रखकर दिखाया है।
उपन्यास में वामपंथी विचारधारा के तत्व देखने को मिलते हैं और पश्चिम की व्यवस्थाओं के प्रति गुस्सा देखने को मिलता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सामंतवादी विचारधारा को भारत में लाने के बाद यहाँ जनता की स्थिति ख़राब ही हुई है। पूँजीवाद और उसके द्वारा लायी गयी व्यवस्थाओं के प्रति कमलेश्वर का रुख बहुत उत्साही नहीं रहा है। साथ ही साथ धर्म के उपदेशकों को समस्या का एक भाग माना गया है, जैसा कि हमने औरंगज़ेब के प्रसंग में और अन्य जगहों पर देखा है। इस उपन्यास में एक सन्देश है जिसे लोग आत्मसात करने में कहाँ तक सफल रहेंगे यह तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतिहास से सीखने को काफी कुछ है यह दिखता है।
जैसा की पुस्तक की भूमिका में कमलेश्वर ने ख्याति-प्राप्त लेखकों की प्रतिक्रियाओं का हवाला देते हुये लिखा है कि इसे उपन्यास के एक प्रचलित ढांचे में देखने में बहुत दिक्कत हुई। लेकिन प्रयोगवाद की यही तो एक पहचान होती है कि एक प्रयोग पहचानी जा चुकी परम्पराओं से भिन्न होता है। एक लेखक ने पुस्तक की समीक्षा करते हुये इसकी शब्दावली को आसानी से ग्रहण करने वाला बताया है और जैनेन्द्र की भाषा से तुलना करते हुये इस समाज के ज्यादा करीब पाया है। मैंने जैनेन्द्र को तो अभी तक नहीं पढ़ा है लेकिन ‘कितने पाकिस्तान’ जरूर बोलचाल की हिंदी का प्रयोग करता है जिसमें उर्दू के शब्द भी हैं और तत्सम भी। जो भी भाषा अपने विचारों को व्यक्त कर जाये वही उचित होती है।
इस पुस्तक को पड़ कर समझा जा सकता है कि कॉंग्रेस ने हमारी देश की संस्कृति को कितना अपमानित करवाया है। ऐसी पुस्तक के लेखक को सिर्फ कांग्रेस ही सम्मानित कर सकती है
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