Pages

Dec 6, 2016

पुस्तक समीक्षा : सआदत हसन मंटो की लिखी 'टोबा टेक सिंह और अन्य कहानियाँ'

उर्दू साहित्य जगत में मंटो के नाम से कौन परिचित नहीं है। मंटो की चुनी हुई कहानियों का यह संग्रह 1950 में प्रथम प्रकाशित हुआ मालूम पड़ता है। ऐसा भूमिका में दी गई जानकारी से लगता है। इन कहानियों में मानवता के उन पहलुओं को छुआ गया है जो धर्म, भाषा और पहचान जैसे सवालों से बहुत दूर हैं और सिर्फ दो वक़्त की रोटी और जान-माल की सुरक्षा के लिए परेशान किसी शख्स के दिल से सटे हुए मुद्दे हैं। 

सआदत हसन मंटो की लिखी 'टोबा टेक सिंह और अन्य कहानियाँ'
मंटो के इस कहानी संग्रह में मुख्यतः तीन प्रधान विषय हैं। पहला,विभाजन के समय की स्थितियों का भावुक और छू लेने वाला वर्णन। कहानियाँ प्रधान रूप से उस दौर की हैं जब बंटवारा हो चुका था या उसकी नींव पड़ चुकी थी। और ज़ाहिर है कि इस बँटवारे से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित जनता की कठिनाईयाँ भी बहुत अधिक रही होंगी जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। अप्रत्यक्ष रूप से भी बहुत सी जनता प्रभावित हुई होगी लेकिन उसका कष्ट उन लोगों के सामने कुछ भी नहीं है जिन्हें अपना घर-बार छोड़कर सब जाना पड़ा था। 'टोबा टेक सिंह' तो अब तक बहुत प्रसिद्ध कहानी हो चुकी है जिसमें एक पागल को अपने घर के सिवाय कुछ नहीं सूझता लेकिन कहीं न कहीं घर की ज़िद सामान्य लगती है और बँटवारा अधिक पागलपन लगता है। बँटवारे के समय स्त्रियों पर क्या बीती थी इसका चित्र 'खोल दो', 'मोजेल', 'नंगी आवाज़ें' और 'ठण्डा गोश्त' में देखा जा सकता है। निरंकुशता के समय आदमी का पतित रूप या बदले की भावना से ग्रसित किसी भीड़ की हालत इन कहानियों में बखूबी दिखती है। 

दूसरा, मंटो की कहानियों जैसे 'हतक', 'काली सलवार', 'खुशिया' और 'नया कानून' के पात्र समाज के उपेक्षित भागों से चुने गए हैं, जिन पर या तो मुख्यधारा के लेखक कहानियाँ लिखते ही नहीं हैं, या आदर्शवाद के लेप से मूलभाव ही गायब कर देते हैं या उनके कार्यों के पीछे किसी न किसी को दोष दे देते हैं। मंटो ने उनकी स्थितियों को ठीक वैसा दिखाया है जैसे वह होती हैं न कि जैसे उन्हें होना चाहिए। कहीं कोई बड़े आदर्श का पीछा नहीं है, न ही कहीं अपने किये पर किसी प्रकार का पछतावा है। बस उन भावनाओं पर चले जाने की मंशा है जिन भावनाओं से एक सामान्य मनुष्य, जिसकी जरूरतें भी बहुत सामान्य होती हैं, चलता है। अपमान, दिखावा, बदला, घृणा और ईर्ष्या जैसी भावनाओं को जस का तस दिखाया है जैसे वो समाज में मिलती है, बिना नैतिकता का लेक्चर दिए। 

तीसरा, कहानियों के विषय और पात्र थोड़ा असहज करते हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि एक समाज के तौर पर इन सब मुद्दों पर बात करने की हमारी आदत नहीं है। मंटो की कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगे जिनके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन कोई मनुष्य दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि बँटवारे के दौरान महिलाओं ने कहानियों में वर्णित कठिनाईयां नहीं झेली या एक महिला जिसके पेशे को समाज निकृष्ट मानता है उसमें मानवीय भावनायें नहीं होती हैं या झूठी शान के लिए मनुष्य बड़े-बड़े और गैर-जरुरी काम नहीं करता है। यह सारी चीजें समाज में होती है लेकिन इनकी चर्चा साहित्य से बाहर रखने की एक जरुरत प्रभावकारी लोगों ने महसूस की है। लेकिन साहित्य समाज का आईना होता है। 

ये कहानियाँ मूलतः उर्दू में लिखी गयी कहानियों का हिंदी अनुवाद है जिसे प्रकाश पंडित ने किया है। अनुवाद में ज़ाहिर है कुछ साहित्यिक उपलब्धियाँ छिप जाती हैं लेकिन यह कहना होगा कि इस अनुवाद के माध्यम से प्रकाश पंडित कहानियों के सार को बयान करने में कामयाब रहे हैं। ज्यादातर कहानियाँ बड़ी नहीं हैं, अंतिम दो को छोड़कर, लेकिन विचारोत्तेजक हैं और कहीं न कहीं ऐसा लग सकता है कि जैसे किसी असल घटना को बयान किया गया हो। 

No comments:

Post a Comment