एक दिन जो ये टीले हैं
इनके पत्थर चूर होकर
रेत के कणों में बदल जायेंगे
और किसी आँधी में दूर कहीं उड़ जायेंगे
ये नदियों का बचा-खुचा पानी
सागर की शरण लेगा
और अपने जीवन को फिर से दोहरा देगा
इन खण्डहरों की अंतिम ईंट भी
एक दिन इतिहास को कोसने के लिये नहीं बचेगी
कई पीढ़ियों बाद संसार के लोग ऊब जायेंगे
और इतिहास के महत्व को नकार देंगे
तब यहाँ के रास्ते वीरान नज़र आयेंगे
तब कहा जायेगा
कि काल भटकता रहा देश में
जिस परिणति के लिये
जिस स्थायीपन के लिये
वह अब उसे प्राप्त हुआ,
पूछा जायेगा कि अंतिमता अनाकर्षक क्यों है?

और बाहरी अंतिमता के उस दौर के बाद
शायद मनुष्य आंतरिक अंतिमता की तरफ उन्मुख होगा
जहाँ फिर एक दौड़ शुरू होगी
जीवन को मतलब से सजा देने की,
कलम से कलम लड़ेगी
और वादों के टकराव शुरू होंगे
व्याकुलता के नए दौर शुरू होंगे
अस्तित्व का संकट फिर उठ खड़ा होगा
और अंतिमता की खोज ही अंतिमता बनती जायेगी,
क्या अंतिमता मात्र एक मृग-मरीचिका है?


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