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Apr 1, 2017

हम्पी - 9 / तुंगभद्रा

नदी आज की तरह शांत
हमेशा से नहीं थी
अब घाटी के किसी कोने में सिमटकर
एक गौरवमयी इतिहास पर
इतराने या उसके बारे में सोचकर
पश्चाताप करने के अलावा चारा ही क्या है,
नदी के बीचो-बीच एक पत्थर
अब दिखने लग गया था
जिस पर दिखते हैं काटे जाने के निशान
जो किसी तेज धारा ने
अपने पराक्रम काल में बनाये होंगे,
कुछ सौ मीटर की दूरी पर जाकर
नदी ठहरी है पिछली कुछ पीढ़ियों से
लोग नदी देखने वहीं जाते हैं,
वहीं पास के एक टीले से
सूरज नदी को सुनहरी रोशनी में
नहलाकर ही सोने जाता है,
जहाँ सुनते हैं
कि सदियाँ एक दूसरे से मिलने आती हैं
इतिहास अपनी कलम से
भविष्य को दिशा दिखा रहा होता है
सच और झूठ
उपयुक्तता के तराजू में तौले जा रहे होते हैं,
सुनो, तुम नदी को यहाँ मत देखो
ये नदियाँ अब घाटियों में नहीं बहतीं
अब ये बहती हैं
समय में, काल में,
वह देखो दूर किसी काल की नदी
वर्तमान के महासागर में अभी अभी मिली है
जहाँ से फिर कई पल
बादल बनकर उठेंगे
और फिर कुछ नदियाँ बह उठेंगीं।

शायद नदी की यह पतली धारा भी
किसी दिन सूख ही जायेगी
लेकिन रह जायेगी
इन पत्थरों पर, इतिहास की दिशा पर, जनमानस पर,
एक अमिट छाप।

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