कल:
वो बेचैनियों के उस दौर में था
जहाँ खालीपन उपासना की चीज थी
अकेलेपन के सान्निध्य में न जाने
कौन-कौन से विचारों की यात्रायें होती थीं,
जहाँ बैठकर वह सोचता था
कि अगर दुनिया ऐसी भी हो तो क्या गलत है,
जहाँ लकीर का फक़ीर न होना एक साधारण बात न रहकर
एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी बन जाती थी।

बेचैनियाँ भी वहीं थी
जो कभी न कभी अन्य से भी रु-ब-रु हुई ही थीं
पर उसके साथ हादसा हुआ था
बेचैनियाँ गई नहीं
उसमें समा गईं,
और वह उन्हीं बेचैनियों को सौंपता रहा
ज़माने के सही-गलत के मापदण्ड
जहाँ से कुछ नहीं निकलता था
बस एक ढर्रा
और सफलता-असफलता के मानक,
बेचैनियाँ बढ़ती गईं
उनकी ओट से देखा उसने सतही बातें
दुनिया को नई तरह से देखने की कोशिश भी की
लेकिन प्रकृति के कैनवास पर
सदियों से चढ़ाये कृत्रिम रंगों पर
उसके रंग बहुत देर टिक नहीं पाये,
उसकी बेचैनियों के शब्द
वाइजों के लिये परेशानी के सबब थे,
लेकिन वह चलता रहा
उस राह पर जहाँ मिलती थीं
कई राहें बेचैनियों की,
आवारापन की, पागलपन की
उन राहों पर जहाँ चलकर
अपने सामान्य रूप में
कहते हैं कि कोई लौटता नहीं।

आज:
वो पागल नहीं है
सभ्य लोगों के तौर-तरीके
उसने अपना लिये हैं
ये कैसे हुआ
किसी को नहीं पता,
सुना है कि सभ्य बनने के बाद
बहुत समय तक उसकी आवाज़ गायब थी।


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