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Jun 25, 2017

चन्द्रोदय

घटनाओं को घटित हुआ मान लेना
साधारण बात होती है
घटनाओं को घटित होते हुये देखना
एक अलग अनुभूति होती है
उस रात
बादलों को ओढ़े हुये
घाटी की सर्द हवा में काँपते हुये तारों को
मैंने देखा था
बीच-बीच में हार मानकर
कुछ तारे टूटकर गिरते भी थे
पहाड़ों पर शामियाने की तरह अटका हुआ आसमान
उनकी बेचारगी पर बहुत हँसता था
हवायें कानाफूसी करती थी,
उस रात यह घटना घटित हुयी थी
जब चाँदनी की एक चादर ने
तारों को अपने आगोश में लेकर
उनका संघर्ष समाप्त किया था।

और यह ज्ञात हो
कि मैंने चाँद को
नुकीले पहाड़ों में फँसकर निकलते हुये
और चाँदनी को धीरे-धीरे फैलते हुये देखा था।

Jun 24, 2017

अज्ञात यात्रा

दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
वो कुछ छायाचित्र
जो तुम्हें देखकर अनायास ही बन गये थे
धूमिल हो ही जायेंगे
स्याही से लिखी गयी कुछ पंक्तियों की तरह,
कभी सोचना कि अनायास मिलना
सुंदर होता है न?
बिना किसी के उगाये
जंगल में खिल आये
कुछ जंगली फूलों की तरह
जिन्हें हम खोजते नहीं फिरते
लेकिन दिख जाये तो क्या नहीं करते,
दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
एक ग्लेशियर पर बर्फ के रूप में गिरकर
हमें दो अलग दिशाओं में
दो अलग धाराओं में निकलना होगा
अलग-अलग यात्राओं के लिये
बर्फ पर उकेरी आकृतियों की तरह
ये यादें अन्य यादों के आने पर दब जायेंगी
या जैसे खेत में बोई हुई यादें
कभी घटनाओं के हल चलने पर
कभी दोबारा भी आ सकती हैं
यह हम सोचेंगे
और उन यादों को झरने पर टाँग देंगे
जहाँ से उन्हें मूकदर्शक बनकर
गिरते हुये देखा जा सके
और यह चलचित्र समाप्त होने के बाद
हमें फिर से अपनी-अपनी धारा में बहना होगा।

दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
दोबारा मिलने के लिये
नियति के चक्र फिर से ऐसे ही घूमने होंगे
गृहों की गति, देशकाल का प्रवाह
फिर से ऐसे ही होना पड़ेगा
और हमें फिर से अज्ञात यात्रा के लिये निकलना पड़ेगा।

Jun 16, 2017

आदतबाज़

फिर लगा दी जाती हैं
सदियों से गैर-जाँची, गैर-परखी चली आयी
परम्पराओं की बेड़ियाँ
किन्हीं पैरों में;
वही ढेर सारे नुस्खे
जिनको अपनाकर
आदमी जीवन से सन्तुलन बनाकर रह सकता है
और समय के मंथन में मिले
एक विशेष युग को
उन्हीं बेड़ियों को सौंप देने पर ही
अस्तित्व में रहा जा सकता है,
और यही एक मुद्दे की बात थी
बाकी तो बेड़ियाँ कौन सा मुद्दा छोड़ती हैं
यह सहज अनुभव से जाना जा सकता है।

और इन बेड़ियों से
छूट जाना असम्भव ही है,
बस आदतबाज़ बनकर निकला जा सकता है।

Jun 15, 2017

क्रांतिकारी दौर

एक आवाज़ थी
जो उसने क्रांति के ग्रंथों से
थोड़ी-थोड़ी इकठ्ठा करके
सम्भालकर रख लिया था कि कभी बोला जा सकेगा
बड़े होकर वह आवाज़ और भी बढ़ी उसमें
वह और भी तड़प उठा
वह आवाज़ निकालने को,
वह क़िताबी ज्ञान को
क्रांति समझ लेता है
और झुलसता है प्रचलित दौर के चलन से
और भागा है फिर से
निर्णय के केंद्र से
ताकि चुनौती देने का मौका न आये,
उसकी आवाज़ अब नहीं आती है,
दूर जाते जाते वह आवाज़
साँझ की लाली में घुलकर कहीं गायब हो गयी थी
हर आवाज़ों पर संगीत नहीं जमाया जाता,
क्षितिज के पार लोग
सुना है उसे याद भी नहीं करते
मृत होने के बाद

बहुत दिन बाद
उनकी आत्मायें मिलीं
और सबकी यही एक शिकायत रही,
कि मेरा दौर क्रांतिकारी नहीं था