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Jul 28, 2017

स्पीति - 5 / प्रलय

भोर और साँझ की दीवारों के बीच क़ैद
एक दिन को देखकर
हतप्रभ रह गया हूँ,
आठ प्रहरों से मिलने के लिये दिन
रोज़ पहाड़ लांघ कर आ जाता है
वही-वही दृश्य
वही कार्य रोज़
और दिन
समय की उन सलाखों के बीच
चहलकदमी करते हुये
कभी बूढ़ा नहीं होता,
हम सभी दर्शक
जिसे शाश्वत मानकर बैठ गए हैं
वह दिन भी कभी ऊब जायेगा
संघर्ष करेगा
समय के मापकों को
मानने से इंकार कर देगा
तब हमारी सभ्यता
निरंतरता की नींद से जाग उठेगी।

हज़ारों वर्ष पहले
ऐसी ही किसी एक कल्पना को
मनीषियों ने प्रलय का नाम दिया होगा।

Jul 24, 2017

अदीब - 3 / प्रणयोन्माद का रंग

प्रणयोन्माद का रंग जानते हो अदीब?
आसमान से गिरा हुआ एक रंग
जो लहरों पर फैलता है
फिर छा जाता है
आँखों से जिसे ग्रहण करते हैं हम
खो जाता है कहीं हमारे अंदर
और बेचैन होकर
ढूँढ़ने लगते हैं
एक दूसरे की आँखों में वह रंग,
या पत्तियों के हिलने से
पेड़ों से गिरते हुये रंग के छोटे-छोटे कण
जो एक क्षण में ही
प्रकृति को जिन्दा करके
सामने खड़ा कर देते हैं
जहाँ से उपमायें ढूँढ़ी जा सकें,
या यह भी पूछना चाहिये
कि कोई रंग होता भी है क्या?
नाम देने से पहले
यह जान लेना चाहये
कि नाम दिया भी जा सकता है या नहीं
जिस क्षण तर्क करने की क्षमता क्षीण हो जाती है
यह ज्ञात हो जाता है
दूसरी हर एक बात से ऊपर
एक बात पुख्ता हो गई है
जब कोई रंग नहीं दिखता है
उस समय,
रंग की परिभाषा गढ़ सकोगे क्या अदीब?

(वैसे धर्मवीर भारती जी ने प्रणयोन्माद का रंग नीला माना है।)

Jul 20, 2017

कभी-कभी

कभी-कभी बोलियाँ लगती हैं उसकी बोली की सरे-बाजार,
और भी दूर हो जाता है अपनी बुलन्दियों से वो कभी-कभी।

कभी-कभी राह रुक जाती है चलते-चलते,
और यूँ ही चलता चला जाता है वो कभी-कभी ।

कभी-कभी रास्ता और वो पाला बदल लेते है,
और वो रास्ता होता है, राह मुसाफिर हो जाती है कभी-कभी।

कभी-कभी हासिल-ए-जिंदगी भूल जाता है वो,
और बेचैनियों के हवाले खुद को पाता है कभी-कभी।

कभी-कभी वह सिमटकर रंगमंच हो जाता है,
और बड़े नाट्यकार लड़ने लगते हैं उसके अंदर कभी-कभी।

Jul 16, 2017

जीवन का उद्देश्य

किसी चीड़ और देवदार के जंगल में
मनुष्यों के विकल्पों से बहुत दूर
जब अकेले बैठकर सोचते होगे
कि मैं अगर इस मनुष्य के पास जाऊँ
तो क्या हासिल होगा
और तब वहाँ पर मनुष्यों की तुलना होती होगी
कि कौन अक्ष्क्षुण रूप से
जीवन जीने की परम्परा जीवित रख सकेगा
और तर्कों के वार चलते होंगे
तुम्हारे एकान्त की शांति भंग होती होगी
फिर सोचते होगे
कि मैं उद्देश्यों का इतना बड़ा भार उठा पाउँगा भी या नहीं
मुझमें कौन सी ऐसी बात है
जो तुम्हें निश्चिन्त कर सकती है
तुम किंकर्तव्यविमूढ़,
अनिर्णित रहकर जंगल को और घना बना देते हो
जहाँ से किसी उद्देश्य को कोई मनुष्य मिलेगा भी या नहीं
कहा नहीं जा सकता।

मेरे जीवन के उद्देश्य
तुम कभी अकेले में बैठकर
मेरे बारे में बहुत सोचते होगे।

Jul 15, 2017

अस्थायी - 2

और ये कहा जायेगा फिर
कि चाँद और सूरज
जो कि उतने ही स्थायी हैं
जितना कि समय की परिकल्पना,
तो उन पर भी लोग
इतना स्नेह क्यों रखते हैं?
पर हम चाँद, सूरज और तारों को
स्थायी की तरह से देखते ही कहाँ हैं,
छवि दे देते हैं उन्हें
अपने सीमित अनुभव से उठाकर
और फिर उन छवियों से बहुत लगाव रखते हैं
और प्रकृति के इन पिंडों को
छवियों के मोहपाश में बाँधकर
हम अपनी बनाई कहानियों को
समय की यात्रा में धकेल देते हैं,
लेकिन सहस्रों साल में
इन कहानियों के मायने बदल जाते हैं।

समय के रूप अनेक हैं
समय के इस पार में और उस पार में
मायने बहुत अलग-अलग हैं।

Jul 14, 2017

अस्थायी - 1

खिड़की के किनारे बैठकर
बारिश की बूंदों को देखने को
राष्ट्रीय शौक़ घोषित कर दिया जाना चाहिये
दीवारों के बाहर
वो फूलों के बाग़ जिन्हें देखकर
मन चहक उठता था,
वो अंतरिक्ष के पर्दे पर
चाँद और बादलों की आंख-मिचौलियाँ
जिनमें देखे थे हमने
भयावह शून्य के मानचित्र आसमान में
बहुत सम्भव है
कि सदियों पहले ऐसी ही किसी बात ने
सावन की नरम मिट्टी से रूप लिया हो
कितनी किंवदंतियों को जन्म दिया हो
हाँ,
सम्भावनायें शायद सिर्फ भविष्य में ही नहीं होती
भूतकाल में भी तो
हम सम्भावनायें खोज ही लेते हैं,
स्वप्न के आनंद में
हम खोजते रहते हैं
जीवन जीने के लिये नये खिलौने,
एक वातावरण
जो सिर्फ मेरी सोच भर में था
आनंदित करता रहा था।

सोचता हूँ
कि चीजें अगर अस्थायी न होती
तो भी क्या उनसे उतना ही लगाव रहता?
तो भी क्या इतने धैर्य से उनका साथ रहता?

Jul 13, 2017

पिंजरे का पंछी

दरवाज़ा खुला छोड़ गया है पीछे
बरसों से फड़फड़ाता हुआ एक पंछी
पिंजरा तोड़कर निकल गया है
कहीं किसी पेड़ पर बैठकर
बहेलिये का इंतज़ार करता होगा
उड़ नहीं पायेगा वो
पिंजड़े के पंछी उड़ते नहीं हैं
फिर से किसी जाल में फंस जायेगा
मगर लौटकर नहीं आयेगा।

तुम खूब उनकी आवाज़ें निकालकर उनको बुलाओ
उनके लिये दाना डालो
वो नहीं आयेंगे
पिंजरे के पंछी सिर्फ तुम्हारे नहीं होते।

Jul 1, 2017

लाल गले वाली गौरैया

ये साँझ और लम्बी हो रही है
हवायें सब रुकी हुई हैं
बादलों ने मैदान की तरफ देखना शुरू कर दिया है
और टूटे हुये संगीत की आवाज़
नेपथ्य से सुनाई पड़ती है,
नहीं, सबको नहीं,
टूटना सबके लिये नहीं होता है;
एक मंदिर, जिसकी लकड़ी की दीवारों पर
पूँजीवाद के सिक्के लगा दिए गये हैं,
मैदान की पवित्रता पर आश्चर्यचकित हुआ;
दूर से राही आ-आकर लौट जा रहे हैं
शायद उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गई है
पेड़ सब चुप खड़े हो गये हैं
दिन भर धूप में तपने का फल
उन्हें मिलने वाला था,
चट्टानों से तोड़कर लाये गये पत्थर
घेरकर मैदान को खड़े हो गये हैं
और समय को मैदान तक पहुँचने से रोक लिया है
अस्त होता हुआ सूरज भी धीरे हो चला है,
अभी मैदान में,
जिसके गले का पिछला भाग लाल है,
ऐसी गौरैया ने चरण बस धरे ही हैं।

अभी गौरैया का चहकना शुरू होगा
और उसकी प्रतिध्वनि में
सामने का वो पहाड़ झूम उठेगा।