भोर और साँझ की दीवारों के बीच क़ैद
एक दिन को देखकर
हतप्रभ रह गया हूँ,
आठ प्रहरों से मिलने के लिये दिन
रोज़ पहाड़ लांघ कर आ जाता है
वही-वही दृश्य
वही कार्य रोज़
और दिन
समय की उन सलाखों के बीच
चहलकदमी करते हुये
कभी बूढ़ा नहीं होता,
हम सभी दर्शक
जिसे शाश्वत मानकर बैठ गए हैं
वह दिन भी कभी ऊब जायेगा
संघर्ष करेगा
समय के मापकों को
मानने से इंकार कर देगा
तब हमारी सभ्यता
निरंतरता की नींद से जाग उठेगी।
हज़ारों वर्ष पहले
ऐसी ही किसी एक कल्पना को
मनीषियों ने प्रलय का नाम दिया होगा।