पहले जला था, फिर बुझा था वो।
घाटी की साँझ की हवाओं ने
उसे रोका नहीं था,
आधे चाँद ने उसे शीतलता देने की
कोई कोशिश नहीं की थी,
पहाड़ ने सोचा था
कि बढ़ती हुई लपटों को वह छिपा लेगा
ताकि कहीं से कोई सहायता न आ पाये
और नदी?
नदी सिमट गई घाटी के एक कोने में
मानो आंच से उसे भी डर लगता हो,
वह किस ध्येय के लिये जल रहा था
यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की
ऐसा इसलिये नहीं
कि यूँ जलना
बहुत सामान्य और बहुधा होने वाली बात थी,
इतनी तो लपटें थी भी नहीं
कि सब खुद जल जाने के डर से
बुझाने के लिये दौड़ पड़ें,
वह किसी ध्येय के लिये ही जल रहा हो
यह भी विश्वास से नहीं कहा जा सकता
हो सकता है
उसका जलना शुद्ध पागलपन का परिणाम रहा हो।
कई दिनों तक जला था वो
जब उसके मस्तिष्क से
सारा ईंधन समाप्त हो गया था,
जब उसके शरीर का हर एक टुकड़ा
प्रकृति से साक्षात्कार के लिये व्याकुल हो उठा,
तब जाकर बुझा था वो।