मैंने शब्दों को देखा था
पहाड़ की ढलान पर छितरे हुये
पीले-बैंगनी फूलों की चादर पर
बारिश के पानी में गीले हो गये शब्दों को
मैंने धारा की ओर
ढनगते हुये देखा था
मैंने शब्दों को रोकने की कोशिश की थी
मेरा हाथ उन से सन गया था
मगर शब्द मेरे झांसे में नहीं आये,
मैंने उन्हें कविता में कुछ गूढ़ बात कह जाने के लिये
इस्तेमाल करने का वादा भी किया था,
वे लुढ़कते रहे फिर
सारे शब्द धारा के साथ,
एक लम्बे समय तक
जब तक किसी महाकाव्य के सागर में
समाहित नहीं हो गये,
उस महाकाव्य के पन्नों से
आँखों में चमक लिये वे शब्द झांकते हैं
आज अपने महिमामण्डन पर गर्व अनुभव करते हैं
और झोपडी की किसी मटमैली नोटबुक में आने से मना कर देते हैं।
मैं उन शब्दों के पास से गुजरा था
मैंने उन्हें दुलराया भी था,
मैंने उनमें ऐसा कोई रुझान नहीं देखा था।