प्रशंसा की ज्यादातर वस्तुयें
उदासी पर आधारित होती हैं
यह साहित्य, कला और संगीत के रूपों में
सहज दिख जाता है,
क्या यह कहना चाहिये
कि सुंदरता और सहानुभूति
एक दूसरे से जुड़े हुये हैं
या इसे किसी दौर-विशेष का चलन कहकर
नकार देना चाहिये,
सत्य हमेशा सुन्दर नहीं होता
सुंदरता हमेशा शिव नहीं होती
सुंदरता उदास करती है
तो सत्य हो भी जाये
शिव नहीं हो सकती।
और क्या यह कहा जा सकता है
कि सुंदरता का देवता
उदासी का भी देवता रहा होगा?
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