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Oct 20, 2017

अजर, अमर

1.
मैं उस शरीर में बँधी हूँ
जिसके कदमों को चूमती है चाँदनी रेत
और बालों को छूकर निकलती है घाटी की हवा,
जिसके एक तरफ बहती है नदी
और दूसरी तरफ चढ़ता है आसमां,
एक वृत्त में दौड़ता हुआ वह शरीर
और हाँफता हुआ
अपने चारों तरफ़
अपनी सी दुनिया ढूँढ़ता हुआ,
ब्रह्म में भटकी हुयी
मैं उस शरीर की अल्पकालिक यात्री हूँ।

2.
मेरी खोज में न राहें मेरा कहना मानती हैं
और न ही मानता है ये सफर
मेरे उद्देश्य में
न ही कोई नीरसता है
और न ही कोई नीरवता है
हाँ, थोड़ी विवशता है
मेरी राह में
अब न जीतें हैं
अब न हारें हैं
वैसे तो मैं आत्मा हूँ
और तथाकथित रूप से बहुत महत्व की हूँ
लेकिन समय में मैं एक बहुत महत्वहीन अनुचर हूँ।

3.
और फिर एक दिन
शरीरों की इस यात्रा में
करोड़ों वर्षों के बाद
दिन ज्यादा उजले होंगे
रातें कम अंधियारी होती जायेंगी
और तब तक मैं रह गयी
रचयिता की कृति में उलझकर
तब आसमान झुलसता हुआ
मुझसे मेरी जिंदगी माँगने आ खड़ा होगा
तब मैं भागती फिरूँगी
एक नयी खोज पर चर्चा करने के लिये
मगर कहूँगी किससे
कि सूरज धरती को लील गया है।

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