हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया एक मनुष्य
ढोता है अपनी पीठ पर
अपने से कई गुना ज़्यादा बड़ी एक घण्टी
जिसमें समय आता है
तो होती है कोई ध्वनि
और वह मनुष्य
घण्टी को ढोने का कारण जान लेता है।

समय को ढोते रहना है
समय के साथ क़दम-ताल नहीं मिलाना है
समय हमारी हड्डियाँ तोड़ देगा
लेकिन हम समय को
अपने ऊपर लदा हुआ देख भी नहीं पायेंगे।

तारीखें बदलती हैं
कैलेंडर बदलते हैं
सदियाँ बदलती हैं
निज़ाम बदलते हैं
हम भी बदल जाते हैं
लेकिन समय की पकड़ ढीली नहीं होती है।

समय के भार से
हम सीधे खड़े नहीं हो सकते हैं
और देख नहीं सकते हैं रास्ता
चलते रहना है बस चलने के लिये
रुक गये
तो समय का भार और भी बढ़ने लगेगा।

समय है यहाँ
और समय यहाँ हमेशा रहेगा
समय की नज़रों में
हम आवारा हैं,
समय फिर से चाबी भर देगा
और हम दौड़ने लगेंगे।


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