कहीं एक सूखा पत्ता था
मैंने उसका शाखा से मिलन कराकर छोड़ दिया।
कहीं बर्फ का पिघला पानी जमा हो गया था
मैंने पत्थर से रास्ता खोदकर उसे नदी से जोड़ दिया।

कहीं एक चिंगारी ख़त्म होने की कगार पर थी
मैंने ईंधन देकर उसे भड़का दिया।
कहीं वेदना से व्याकुल एक टहनी टूटने वाली थी
मैंने उसकी आँखों में देखकर उसे हड़का दिया।

कहीं चाँद, तारों और ब्रह्माण्ड की बातें हो रही थीं
मैंने कहा था मैं खाका खींच लूँगा।
कहीं किसी किताब के आखिरी पन्ने पर असहाय खड़ा मिलूँगा
मैं जानता हूँ कि मुट्ठियाँ भींच लूँगा।

कहीं एक लहर थी जो पत्थर चूर करने के प्रयास में थी
मैंने उसके समर्पण को देखा, और कहा, खूब।
कहीं एक आँधी चल रही थी जिसमें बड़े वृक्ष उखड़ रहे थे
उसने मुझसे अपना जवाब माँगा, मैंने कहा, दूब।

कहीं एक बारिश थी जिसमें पनपते थे नये-नये बुलबुले
मैंने रात में बल्ब की रौशनी को उसमें घोल दिया।
कहीं हवा थी ठण्ड से ठिठुरी हुयी घर के बाहर खड़ी
मैंने आमंत्रण दिया और खिड़कियों को खोल दिया।

कहीं एक साँझ थी जो दिन से बिछड़कर थी परेशान
मैंने उसे रात से बचाकर चित्र में क़ैद कर दिया।
कहीं एक सवेरा बैठा था नींद खुलने से सुस्त था
मैंने उसे पूरब की ओर लुढ़काकर रौशनी से लैस कर दिया।

कहीं समय था जो इतिहास को बदलने का निश्चय कर चुका था
मैं उससे मुखातिब हुआ और पूँछा - क्या यहीं?
कहीं एक मोटी पोथी थी जो इतिहास की धारा में बही थी
मैंने उसे पढ़ा और जवाब पाया - क्यों नहीं?

कहीं एक शब्द था अपने अर्थ से बिछड़ा हुआ
मैंने उसे परिप्रेक्ष्य देकर उसका संघर्ष कर दिया व्यर्थ।
कहीं एक छन्द था अपने रूपक से अलग-थलग
मैंने उसे एक और मानी देकर कर दिया और भी असमर्थ।

कहीं दर्द की दरिया मिली कराहते हुये धीरे चलती हुयी
मैंने शब्दों का बाँध बना दिया और कहा रुको।
कहीं हवा में झूमती एक प्रतिभावान शाखा मिली
मैंने जिम्मेदारी का बोझ उस पर लादते हुए कहा झुको।

मैं नया कवि हूँ, कुछ कहने के प्रयास में हूँ
मुझे जो मिला, मैंने जो देखा, मैंने उन्हें शब्दों में बुना।
दुनिया जैसी हमने देखी है, हम सभी जानते हैं
मैंने एक नयी दुनिया गढ़ने के लिये शब्दों को चुना।

(अज्ञेय की कविता ‘नया कवि : आत्म-स्वीकार’ को समर्पित।)


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