तुम्हें साहित्य लिखना है न
तो तुम सबसे पहले मौन लिखो।
इतना मौन
कि जहाँ तुम सुन सको काल-चक्र की धड़कनें
और गिन सको साँसें
महसूस कर सको
संसार को अपने आप में,
जहाँ छू सको देश और काल की धुरियों को,
और विचरण करो
विचारों के निर्वात में,
वो निर्वात
जो आँधियों को अपनी तरफ खींचता है,
जहाँ जान सको
संसार में अपनी ठीक-ठीक स्थिति,
जहाँ तुम शून्य में गिरो
और तुम्हारे गिरने की कोई आवाज न हो,
तुम्हारे गिरने पर काल का अट्टहास हो
जिसे तुम्हें छोड़कर कोई भी न सुन सके,
उतने मौन में
जितने में होने और न होने की सीमाओं का लोप हो जाये
और तुम बौखला उठो,
और यह सोचो
कि आसपास घटित होने वाली कौन-सी घटना
पक्का-पक्का यकीन दिला सकती है
कि तुम हो,
मौन इतना हो
कि तुम्हें कुछ सुनाई न दे
अंतरिक्ष की रिक्तता की तरह
जहाँ आवाजें नहीं होती हैं,
लेकिन होता है प्रकाश
जिसे आँख मूँदकर भी पाया जा सके,
सन्नाटे के शोर में अनुभव करो
कि धरती का घूमना रुक गया है,
आसमान नाम की कोई वस्तु वैसे भी नहीं है,
दुनिया तुमको देख रही है,
सड़क घाटी से ऊपर आ चुकी है,
शरीर में पांच तत्व होते हैं,
Orion समंदर से नहाकर निकल रहा है,
यादें मष्तिष्क की कल्पना हैं,
खिड़की से लाल रौशनी तुम्हारे पास आ रही है,
काफिला रेगिस्तान में पानी से बहुत दूर है।
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Dec 31, 2017
Dec 27, 2017
जीवन की दहलीज़ पर
लहरों का बुलावा जानलेवा था
मेरी अपनी समझ कुछ कच्ची थी
अगर मैं सब कुछ जान लेता
तो भी मैं क्या करता,
दुनिया की परतें अंजान थीं
अंजान का आकर्षण था
दुनिया को अपने से अलग कर पाता
तो शायद लहरों को सही-सही देख पाता,
सारी लहरें किनारे आकर पत्थर से नहीं टकराती
कुछ बीच समन्दर में ही दम तोड़ देती हैं
किनारे पर बैठकर देखता हूँ
सफ़ेद झाग कहीं-कहीं समन्दर में
फैलते हैं बिना किसी पैटर्न के,
लहरें हवा की बात मानकर
किनारे की तरफ़ बढ़ती हैं
पत्थरों से उनकी टक्कर भयावह थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
हवा की गूँज कर्कश थी
(सिर्फ़ मेरे मानने से
हवा कर्कश हो जायेगी?
विशेषण सापेक्ष हो सकते हैं)
तट पर फैले हुये झोपड़ियों के झुण्ड में से
पीले तिरपाल से ढकी हुयी
एक नारियल की दुकान है
और कातर दृष्टि से देखती हुयी
उसकी बूढ़ी मालकिन
खोजती है झोपड़ी में रस्सियों को,
उसमें मृत्यु का, परलोक का कोई भय नहीं था,
भय था मात्र आज का, कल का,
हवा को भी वहाँ नहीं टिकना है
क्षणिक विजय लेकर आगे बढ़ना था,
और उस पुरानी झोपड़ी में
ढेर सारा जीवन भरा था
जीवन की साँस के लिये
हवा का हर एक झोंका ठोकर था,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
समन्दर की गहराई में भी खिंचाव था
('जिन खोजा तिन पाईयाँ' मुझे सिखाया गया है)
और उतरना समन्दर में
चट्टानों की बनी हुई सीढ़ियों से
और फिर खो देना सीढ़ियों को
सीढ़ियाँ थीं?
नहीं;
उतर जाना आसान था
इसीलिये मान लिया गया था,
और गहराई में खोजना फिर वही जीवन
जिसको त्याग दिया गया था
लेकिन जिससे मन अभी भरा नहीं था
खोजना फिर वही साँसों के कारण
निकलने वाले बुलबुले,
होना क्या था
और हो जाना क्या
यह हमें अभी तक ज्ञात नहीं था,
और हम खोजने निकले थे गहराइयाँ,
खोजने निकले थे वो
जिसे हम अपने ज्ञान से
ज्ञात श्रेणियों में बाँट सकें,
जो नया था उससे अनभिज्ञ ही रहना था,
होना सत्य है,
हो जाना लेप है? सचमुच?
गहराई का सन्नाटा निर्मम था,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
सूरज बहुत साधारण था,
बादलों से लड़कर शायद परेशान हो गया था
या कोई और गम्भीर वजह थी शायद?
अब, जबकि यह जान लिया गया है
कि सूरज नहीं है संसार के केंद्र में
और है मात्र एक औसत तारा,
रोज़ सुबह आना
और रोज़ शाम को जाना
नहीं है सूरज के नियंत्रण में,
या प्रार्थनायें पृथ्वी पर समृद्धि के लिये
नहीं सुनता है सूरज,
तो सूरज खो देता है
अपने सभी मानी
जो भी इसने बना रखे हैं रोज़ आने-जाने के,
नहीं, उद्दयेश्य की लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जाती ऐसे
आरोपित कर दिये गये मानी
नहीं बता सकते हैं सत्य क्या है?
सत्य बदला जा सकता है?
सत्य काल पर निर्भर है?
आज जो सत्य है, कल भी रहेगा?
सवालों के बोझ से दबी हूयी
सूरज की किरणें थकी-हारी थीं,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
रेत की पकड़ ढीली थी
समन्दर पूरे उफान पर था
हवा ज़ोर-शोर से बह रही थी
और बह रहे थे एक-एक करके
रेत के बनाए महल
फिसल रही थी रेत धरती की मुट्ठी से
जैसे फिसलता है समय वर्तमान से,
पराजय?
पराजय नहीं है ये
क्षणिक युद्धविराम है
और क्षण हैं जिसके सदियों जैसे लम्बे,
उस क्षण में सिमटी हैं रेत आज बलहीन
युद्ध के मैदान में युद्ध के बाद की
क्षत -विक्षत अवस्था में,
लेकिन एक दिन
समन्दर में कुचली हुयी रेत उठ खड़ी होगी
टापू समन्दर के बीचों-बीच फिर खड़े होंगे
जय-पराजय फिर से नये परिभाषित होंगे
और समय हँस उठेगा
उस एक क्षणिक विजय पर भी
तब तक देखना है यही,
रेत की अवस्था दयनीय थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
रात की चमक फीकी थी
चाँद की चाल थकी सी थी
चमकीली लहरों को निहारना
जहाँ लहजा भी कुछ अनमना था,
और जबकि यह मालूम था
कि आज गर्व करने लायक जो कुछ भी है
(या घमण्ड करने लायक,
लड़ने के लायक)
सब समन्दर का ही दिया है
मोती, पानी, भोजन, वैभव
और यह भी कहा गया है
कि जीवन की उत्पत्ति भी समन्दर से ही हुयी है;
यह मालूम होने के बाद भी
यह लगता था
कि समन्दर बस क्षय कर सकता है,
आओ, समन्दर फिर से देखते हैं
ये लहरें किसी दूर देश की प्रतिनिधि हैं
जो लाती हैं अक्षुण्ण रहस्य
और विलीन हो जाती हैं;
संदेशवाहक किसी नयी दुनिया के?
हम भी स्थायी नहीं हैं,
संदेशवाहक प्रकृति के?
गर्व करने लायक हर एक बात
याद करके ढीली छोड़ दी गयी
रात बहुत निष्ठुर थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
लहरों का बुलावा जानलेवा था
समन्दर के पार की दुनिया बहुत चमकीली थी
(चकाचौंध से खींचने वाली चमक)
तूफ़ानों के किससे बहुत भयावह थे
तलहटी में दूबे हुये जहाज़
दुस्साहस के उदाहरण थे,
जीवन रेत पर बैठा हुआ था
पानी में पैर भिगोये हुये
क्या देख सकता था?
रंग-बिरंगी सीपियाँ,
कहीं-कहीं बिखरे थे मोती,
काल के किसी कोने में गिरे होंगे
जीवन का इंतज़ार करते होंगे,
सोच सकने वाली हर एक बात
कही-सुनी जा चुकी होगी
हिदायतें जितनी भी इतिहास दे सकता है
जीवन ने पढ़ ही ली होंगी,
जीवन को मोती खोजने जाना ही पड़ेगा
और देखना होगा
पानी में डूबे पत्थर के क़िलों को
जिनमें चस्पा हैं समय के अट्टहास,
जीवन समय से आगे निकल चुका है
जीवन समय से पिछड़ गया है,
जीवन समय के साथ क़दम-ताल मिला रहा है,
सब कहीं न कहीं सच हैं
(अज्ञानता बहुत आकर्षक थी)
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
मेरी अपनी समझ कुछ कच्ची थी
अगर मैं सब कुछ जान लेता
तो भी मैं क्या करता,
दुनिया की परतें अंजान थीं
अंजान का आकर्षण था
दुनिया को अपने से अलग कर पाता
तो शायद लहरों को सही-सही देख पाता,
सारी लहरें किनारे आकर पत्थर से नहीं टकराती
कुछ बीच समन्दर में ही दम तोड़ देती हैं
किनारे पर बैठकर देखता हूँ
सफ़ेद झाग कहीं-कहीं समन्दर में
फैलते हैं बिना किसी पैटर्न के,
लहरें हवा की बात मानकर
किनारे की तरफ़ बढ़ती हैं
पत्थरों से उनकी टक्कर भयावह थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
हवा की गूँज कर्कश थी
(सिर्फ़ मेरे मानने से
हवा कर्कश हो जायेगी?
विशेषण सापेक्ष हो सकते हैं)
तट पर फैले हुये झोपड़ियों के झुण्ड में से
पीले तिरपाल से ढकी हुयी
एक नारियल की दुकान है
और कातर दृष्टि से देखती हुयी
उसकी बूढ़ी मालकिन
खोजती है झोपड़ी में रस्सियों को,
उसमें मृत्यु का, परलोक का कोई भय नहीं था,
भय था मात्र आज का, कल का,
हवा को भी वहाँ नहीं टिकना है
क्षणिक विजय लेकर आगे बढ़ना था,
और उस पुरानी झोपड़ी में
ढेर सारा जीवन भरा था
जीवन की साँस के लिये
हवा का हर एक झोंका ठोकर था,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
समन्दर की गहराई में भी खिंचाव था
('जिन खोजा तिन पाईयाँ' मुझे सिखाया गया है)
और उतरना समन्दर में
चट्टानों की बनी हुई सीढ़ियों से
और फिर खो देना सीढ़ियों को
सीढ़ियाँ थीं?
नहीं;
उतर जाना आसान था
इसीलिये मान लिया गया था,
और गहराई में खोजना फिर वही जीवन
जिसको त्याग दिया गया था
लेकिन जिससे मन अभी भरा नहीं था
खोजना फिर वही साँसों के कारण
निकलने वाले बुलबुले,
होना क्या था
और हो जाना क्या
यह हमें अभी तक ज्ञात नहीं था,
और हम खोजने निकले थे गहराइयाँ,
खोजने निकले थे वो
जिसे हम अपने ज्ञान से
ज्ञात श्रेणियों में बाँट सकें,
जो नया था उससे अनभिज्ञ ही रहना था,
होना सत्य है,
हो जाना लेप है? सचमुच?
गहराई का सन्नाटा निर्मम था,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
सूरज बहुत साधारण था,
बादलों से लड़कर शायद परेशान हो गया था
या कोई और गम्भीर वजह थी शायद?
अब, जबकि यह जान लिया गया है
कि सूरज नहीं है संसार के केंद्र में
और है मात्र एक औसत तारा,
रोज़ सुबह आना
और रोज़ शाम को जाना
नहीं है सूरज के नियंत्रण में,
या प्रार्थनायें पृथ्वी पर समृद्धि के लिये
नहीं सुनता है सूरज,
तो सूरज खो देता है
अपने सभी मानी
जो भी इसने बना रखे हैं रोज़ आने-जाने के,
नहीं, उद्दयेश्य की लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जाती ऐसे
आरोपित कर दिये गये मानी
नहीं बता सकते हैं सत्य क्या है?
सत्य बदला जा सकता है?
सत्य काल पर निर्भर है?
आज जो सत्य है, कल भी रहेगा?
सवालों के बोझ से दबी हूयी
सूरज की किरणें थकी-हारी थीं,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
रेत की पकड़ ढीली थी
समन्दर पूरे उफान पर था
हवा ज़ोर-शोर से बह रही थी
और बह रहे थे एक-एक करके
रेत के बनाए महल
फिसल रही थी रेत धरती की मुट्ठी से
जैसे फिसलता है समय वर्तमान से,
पराजय?
पराजय नहीं है ये
क्षणिक युद्धविराम है
और क्षण हैं जिसके सदियों जैसे लम्बे,
उस क्षण में सिमटी हैं रेत आज बलहीन
युद्ध के मैदान में युद्ध के बाद की
क्षत -विक्षत अवस्था में,
लेकिन एक दिन
समन्दर में कुचली हुयी रेत उठ खड़ी होगी
टापू समन्दर के बीचों-बीच फिर खड़े होंगे
जय-पराजय फिर से नये परिभाषित होंगे
और समय हँस उठेगा
उस एक क्षणिक विजय पर भी
तब तक देखना है यही,
रेत की अवस्था दयनीय थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
रात की चमक फीकी थी
चाँद की चाल थकी सी थी
चमकीली लहरों को निहारना
जहाँ लहजा भी कुछ अनमना था,
और जबकि यह मालूम था
कि आज गर्व करने लायक जो कुछ भी है
(या घमण्ड करने लायक,
लड़ने के लायक)
सब समन्दर का ही दिया है
मोती, पानी, भोजन, वैभव
और यह भी कहा गया है
कि जीवन की उत्पत्ति भी समन्दर से ही हुयी है;
यह मालूम होने के बाद भी
यह लगता था
कि समन्दर बस क्षय कर सकता है,
आओ, समन्दर फिर से देखते हैं
ये लहरें किसी दूर देश की प्रतिनिधि हैं
जो लाती हैं अक्षुण्ण रहस्य
और विलीन हो जाती हैं;
संदेशवाहक किसी नयी दुनिया के?
हम भी स्थायी नहीं हैं,
संदेशवाहक प्रकृति के?
गर्व करने लायक हर एक बात
याद करके ढीली छोड़ दी गयी
रात बहुत निष्ठुर थी,
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
लहरों का बुलावा जानलेवा था
समन्दर के पार की दुनिया बहुत चमकीली थी
(चकाचौंध से खींचने वाली चमक)
तूफ़ानों के किससे बहुत भयावह थे
तलहटी में दूबे हुये जहाज़
दुस्साहस के उदाहरण थे,
जीवन रेत पर बैठा हुआ था
पानी में पैर भिगोये हुये
क्या देख सकता था?
रंग-बिरंगी सीपियाँ,
कहीं-कहीं बिखरे थे मोती,
काल के किसी कोने में गिरे होंगे
जीवन का इंतज़ार करते होंगे,
सोच सकने वाली हर एक बात
कही-सुनी जा चुकी होगी
हिदायतें जितनी भी इतिहास दे सकता है
जीवन ने पढ़ ही ली होंगी,
जीवन को मोती खोजने जाना ही पड़ेगा
और देखना होगा
पानी में डूबे पत्थर के क़िलों को
जिनमें चस्पा हैं समय के अट्टहास,
जीवन समय से आगे निकल चुका है
जीवन समय से पिछड़ गया है,
जीवन समय के साथ क़दम-ताल मिला रहा है,
सब कहीं न कहीं सच हैं
(अज्ञानता बहुत आकर्षक थी)
लहरों का बुलावा जानलेवा था।
Dec 23, 2017
हिमालय
ऊपर तुम
रात में चाँद को अपने सिर पर ओढ़े हुये
और झरनों के उदगम को
इतिहास की उठापटक को
सीने में दबाये हुये
बर्फ़ की मोटी चादर में
धरती के रहस्य छिपाये हुये,
ऊपर तुम
जहाँ बादल आकर सुस्ताते हैं
जहाँ अभी सूरज को जाकर
तैय्यार होना है कल के लिये।
नीचे हम
खाने के बर्तन खनखनाते हुये
वॉलीबॉल के खेल में ख़ुद को उलझाते हुये
दूर प्रदेशों की यादों में पहचान पाते हुये,
लेकर अपनी मानवता का भार
हम, तुम पर विजय प्राप्त करने की मंशा लिये हुये।
(धानद्रास, रूपिन घाटी में अज्ञेय की कविता 'नन्दा देवी' पढ़ते हुये)
रात में चाँद को अपने सिर पर ओढ़े हुये
और झरनों के उदगम को
इतिहास की उठापटक को
सीने में दबाये हुये
बर्फ़ की मोटी चादर में
धरती के रहस्य छिपाये हुये,
ऊपर तुम
जहाँ बादल आकर सुस्ताते हैं
जहाँ अभी सूरज को जाकर
तैय्यार होना है कल के लिये।
नीचे हम
खाने के बर्तन खनखनाते हुये
वॉलीबॉल के खेल में ख़ुद को उलझाते हुये
दूर प्रदेशों की यादों में पहचान पाते हुये,
लेकर अपनी मानवता का भार
हम, तुम पर विजय प्राप्त करने की मंशा लिये हुये।
(धानद्रास, रूपिन घाटी में अज्ञेय की कविता 'नन्दा देवी' पढ़ते हुये)
Dec 19, 2017
बहुत बरस बाद
मुझे याद है
सबकी आँखों का भाव-विभोर होना,
घुँघरुओं की गूँज
तुम्हारे पैरों का ताल में उठना-बैठना
और थाम लेना कई धड़कनें,
तुम्हें याद है
तुम्हारे पैरों का थककर जवाब दे देना।
मुझे याद है
तुम्हारी ख़ुशी, जो तुमने ओढ़ी हुई थी
और मिलने का अन्दाज़
क़ाबू किये हुये जज़्बात,
शाम का मिलना रात से
और रात का जुदा होना सुबह से,
तुम्हें याद है
सावन के वो सारे अकेले दिन।
मुझे याद है
लौ का उजाला
और ठिठकना रौशनी का
यूँ तुम्हारे चेहरे के ठीक सामने
सम्भलना समय की सीख से
और समाप्त हो जाना अंधेरे के सामने,
तुम्हें याद है
बाती आगे निकालते हुये
गरम तेल में हाथ जला लेना।
मुझे याद है
शोर का शांत होना,
तुम्हें याद है
जलकर राख हो जाना।
सबकी आँखों का भाव-विभोर होना,
घुँघरुओं की गूँज
तुम्हारे पैरों का ताल में उठना-बैठना
और थाम लेना कई धड़कनें,
तुम्हें याद है
तुम्हारे पैरों का थककर जवाब दे देना।
मुझे याद है
तुम्हारी ख़ुशी, जो तुमने ओढ़ी हुई थी
और मिलने का अन्दाज़
क़ाबू किये हुये जज़्बात,
शाम का मिलना रात से
और रात का जुदा होना सुबह से,
तुम्हें याद है
सावन के वो सारे अकेले दिन।
मुझे याद है
लौ का उजाला
और ठिठकना रौशनी का
यूँ तुम्हारे चेहरे के ठीक सामने
सम्भलना समय की सीख से
और समाप्त हो जाना अंधेरे के सामने,
तुम्हें याद है
बाती आगे निकालते हुये
गरम तेल में हाथ जला लेना।
मुझे याद है
शोर का शांत होना,
तुम्हें याद है
जलकर राख हो जाना।
Dec 15, 2017
अनाम लोगों के ख़त
"इधर कुछ दिनों से सूरज नहीं निकला है
मैं बेचैन हो गया हूँ
ताज़्ज़ुब इस बात का है
किसी को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता है,
सूरज?
अरे नहीं! Satellite से देखा गया है
मौसम विभाग ने बताया है
आसमान साफ़ हो जायेगा कुछ दिनों में
अजीब लोग हैं
सूरज देखने के लिये नहीं उठते हैं,
ख़ैर छोड़ो, तुम अपने शहर का मौसम बताना।"
"हवा उस दिन भी बहुत तेज थी
हर तरफ़ उड़ रहे थे काग़ज ही काग़ज
और लोगों की भीड़ दौड़ती थी
कागज़ों को पकड़ने के लिये
कभी बादल का आँसू कोई गिर उठता
तो काग़ज नम होकर वहीं बैठ जाता
दफ़्न होने के इंतज़ार में
हवा रगड़ खाती थी शब्दों से
और पूरा माहौल गरम हो उठता था
उबलने लगती थी यथास्थिति,
उस दौर की बातें भी अब विश्वसनीय नहीं हैं
मैं अब कागज़ों के पीछे दौड़ने लायक उम्र में नहीं रहा हूँ
एक खाली पार्क की बेन्च पर बैठकर
कई दशक पहले की बात लिख रहा हूँ
अब मुझे डर है
कि विद्रोह नहीं कर पाउँगा।"
"ज्यादा कुछ लिखने के लिये नहीं है
इतना जान लो
कि कुछ लिखने के लिये न होते हुये भी
एक खाली पोस्टकार्ड
तुम्हारे पते पर भेज रहा हूँ,
परम्परायें बाँध देती हैं, तुमने कहा था
लो, मैं एक नयी परम्परा खड़ी करता हूँ
बँधना या न बँधना
तुम्हारा फैसला है।
(बाहर बर्फ़ गिरने लगी है
जिस घर में मैंने शरण ली है
वहाँ मेरे पास करने के लिये कुछ नहीं है
सोचा तुम्हारे लिये एक ख़त लिखूँ।)"
"पहले लकड़ी की शाखायें काटी जाती हैं
हरी होती हैं
फिर सूखकर धीरे-धीरे सख़्त हो जाती हैं
फिर उनमें आग लगाई जाती है
बहुत आँच उठती है
चारों ओर खड़े लोगों के
चेहरे साफ़ देखे जा सकते हैं,
सुबह वहाँ बस राख का एक ढेर था,
जिसे दोपहर तक
किसी एक गड्ढे में फेंक दिया गया था;
मैंने ज़िंदगी को
इसी ढाँचे में रखकर देखा था,
तुम अपने आग वाले पड़ाव के बारे में लिखना।"
"ख़त लिखने से पहले
बहुत कुछ याद करना चाहता हूँ
और जब इस बारे में सोचता हूँ
तो यह लगता है
कि ‘याद' सिर्फ़ वही होता है
जिस पर हमने बात की थी कभी
या जो बात करने लायक घटनायें थीं,
‘याद' सिर्फ़ उसे ही कहा जा सकता है
जो घटनायें हमने साझा की थी,
ऐसी बहुत सी चीज़ें थीं
जो हमने अलग-अलग जिया था
उसे मैं यादों के रूप में तो नहीं लिख सकता
उसे कुछ और नाम दूँ -
अनुभव, घटना या कल्पना,
या फिर ऐसी यादें ही कह दी जायें
जो दहलीज़ के पार नहीं जा पायीं।"
"तालाब के किनारे एक बड़े मैदान में
पतंग उड़ाने जाता हूँ
कल शाम को क्षितिज के आसपास
चाँद बैठा था,
मैंने पतंग के कोनों से उसे खुरच दिया था,
और आज
पतंग समेटते समय
चाँद भी उसी में फँसकर चला आया था
उसे मैंने खिड़की पर सजाकर रख दिया है
और उसकी रोशनी में ये ख़त लिखा है
तुम्हारी पतंग क्या लेकर आती है
तुम इस बारे में लिखना।"
"तुमने ख़त में बहुत कुछ लिखा था
और मैंने वो सब समझा था,
दर्शन, राजनीति, संसार सब
ज़िंदगी से तुम्हारा सामना
लेकिन ऐसा बहुत कुछ था
जो नहीं लिखा गया था
लेकिन मैं तुम्हारी लिखावट से
अन्दाज़ लगा रहा हूँ
अक्षर सही नहीं बैठ रहे हैं
जैसे कोई आपाधापी हो,
अगर कोई बात हो तो अगले ख़त में लिखना।"
"तुमने लिखा था
कि साहित्य वही अच्छा लगता है
जो जिये जा रहे जीवन से दूर होता है
जिसमें होता है एक खिंचाव
उस काल्पनिक जीवन की तरफ़
जिसको न पा सकने की स्थिति में
खिंचाव बढ़ता ही चला जाता है
और एक दिन इतना दूर हो जाता है
कि उसे हम आदर्श मान लेते हैं;
किसी विचार का पहुँच से दूर होना
आदर्श होने के पहली कसौटी है;
मैंने इस बात पर सोचा है
और यह पाया इसका उल्टा भी सच हो सकता है
कि साहित्य जिये जा रहे जीवन से
दूर भी कर सकता है।
जीवन जैसे जीना है
जीवन जैसे जिया जा रहा है-
दोनों में एक schism है।"
"बहुत मुमकिन है
कि यह ख़त तुम तक न पहुँचे
लेकिन इसका यह मतलब नहीं
कि ख़त लिखा ही न जाये
हो सकता है कि अभी तक
खतों की पंक्तियाँ
काली स्याही से पोतकर छिपा दी जाती हों
ख़तों को खोलकर पढ़ा जाता हो,
उनको गंतव्य तक भेजने के पहले
यह भी हो सकता है
कि अतिसंवेदनशील मानकर
ख़त को वहीं नष्ट कर दिया जाता हो
फिर भी हम ख़त लिखा करेंगे
(विरोध के लिये ख़ाली ख़त भी)
क्रांति की आग में लकड़ियाँ डालना है
ख़त लिखना होगा।"
"और तुम ख़त में लिखो
साधारण सी बातें, मैं पढ़ूँगा,
तुम लिखो चढ़ी हुई साँसों के साथ
क़दमताल करती हुयी तेज़ धड़कनें,
बारिश के बाद धुली हुयी सड़कें
शांत हो गए पेड़
सड़क पर बिछे हुये
पीली रोशनी में चमकते हुये
अमलतास के पीले फूल
लगता है जिन्हें कोई सड़क पर सजाकर छिप गया हो,
तुम लिखो ज़िन्दगी पर कोई उद्दंड नज़्म,
किसी पगडण्डी की कोई खोई मंज़िल,
सभ्यता की दो धारायें फाँदता हुआ कोई जर्जर पुल,
गेहूँ के खेत में खिले हुये सरसों के पीले फूल,
रेसनिक-हैलीडे के लेक्चर,
कच्ची उम्र के कच्चे क़सीदे,
Led Zeppelin IV के सुरों की समीक्षा,
सूर्य-ग्रहण जो ताज़्ज़ुब से देखा गया था कभी,
तुम लिखो पागलपन, आवारागर्दी,
ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतें,
यह यक़ीन दिलाया जा सकता है
कि इतिहास के दस्तावेज़ों में
इन ख़तों का कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा।"
मैं बेचैन हो गया हूँ
ताज़्ज़ुब इस बात का है
किसी को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता है,
सूरज?
अरे नहीं! Satellite से देखा गया है
मौसम विभाग ने बताया है
आसमान साफ़ हो जायेगा कुछ दिनों में
अजीब लोग हैं
सूरज देखने के लिये नहीं उठते हैं,
ख़ैर छोड़ो, तुम अपने शहर का मौसम बताना।"
"हवा उस दिन भी बहुत तेज थी
हर तरफ़ उड़ रहे थे काग़ज ही काग़ज
और लोगों की भीड़ दौड़ती थी
कागज़ों को पकड़ने के लिये
कभी बादल का आँसू कोई गिर उठता
तो काग़ज नम होकर वहीं बैठ जाता
दफ़्न होने के इंतज़ार में
हवा रगड़ खाती थी शब्दों से
और पूरा माहौल गरम हो उठता था
उबलने लगती थी यथास्थिति,
उस दौर की बातें भी अब विश्वसनीय नहीं हैं
मैं अब कागज़ों के पीछे दौड़ने लायक उम्र में नहीं रहा हूँ
एक खाली पार्क की बेन्च पर बैठकर
कई दशक पहले की बात लिख रहा हूँ
अब मुझे डर है
कि विद्रोह नहीं कर पाउँगा।"
"ज्यादा कुछ लिखने के लिये नहीं है
इतना जान लो
कि कुछ लिखने के लिये न होते हुये भी
एक खाली पोस्टकार्ड
तुम्हारे पते पर भेज रहा हूँ,
परम्परायें बाँध देती हैं, तुमने कहा था
लो, मैं एक नयी परम्परा खड़ी करता हूँ
बँधना या न बँधना
तुम्हारा फैसला है।
(बाहर बर्फ़ गिरने लगी है
जिस घर में मैंने शरण ली है
वहाँ मेरे पास करने के लिये कुछ नहीं है
सोचा तुम्हारे लिये एक ख़त लिखूँ।)"
"पहले लकड़ी की शाखायें काटी जाती हैं
हरी होती हैं
फिर सूखकर धीरे-धीरे सख़्त हो जाती हैं
फिर उनमें आग लगाई जाती है
बहुत आँच उठती है
चारों ओर खड़े लोगों के
चेहरे साफ़ देखे जा सकते हैं,
सुबह वहाँ बस राख का एक ढेर था,
जिसे दोपहर तक
किसी एक गड्ढे में फेंक दिया गया था;
मैंने ज़िंदगी को
इसी ढाँचे में रखकर देखा था,
तुम अपने आग वाले पड़ाव के बारे में लिखना।"
"ख़त लिखने से पहले
बहुत कुछ याद करना चाहता हूँ
और जब इस बारे में सोचता हूँ
तो यह लगता है
कि ‘याद' सिर्फ़ वही होता है
जिस पर हमने बात की थी कभी
या जो बात करने लायक घटनायें थीं,
‘याद' सिर्फ़ उसे ही कहा जा सकता है
जो घटनायें हमने साझा की थी,
ऐसी बहुत सी चीज़ें थीं
जो हमने अलग-अलग जिया था
उसे मैं यादों के रूप में तो नहीं लिख सकता
उसे कुछ और नाम दूँ -
अनुभव, घटना या कल्पना,
या फिर ऐसी यादें ही कह दी जायें
जो दहलीज़ के पार नहीं जा पायीं।"
"तालाब के किनारे एक बड़े मैदान में
पतंग उड़ाने जाता हूँ
कल शाम को क्षितिज के आसपास
चाँद बैठा था,
मैंने पतंग के कोनों से उसे खुरच दिया था,
और आज
पतंग समेटते समय
चाँद भी उसी में फँसकर चला आया था
उसे मैंने खिड़की पर सजाकर रख दिया है
और उसकी रोशनी में ये ख़त लिखा है
तुम्हारी पतंग क्या लेकर आती है
तुम इस बारे में लिखना।"
"तुमने ख़त में बहुत कुछ लिखा था
और मैंने वो सब समझा था,
दर्शन, राजनीति, संसार सब
ज़िंदगी से तुम्हारा सामना
लेकिन ऐसा बहुत कुछ था
जो नहीं लिखा गया था
लेकिन मैं तुम्हारी लिखावट से
अन्दाज़ लगा रहा हूँ
अक्षर सही नहीं बैठ रहे हैं
जैसे कोई आपाधापी हो,
अगर कोई बात हो तो अगले ख़त में लिखना।"
"तुमने लिखा था
कि साहित्य वही अच्छा लगता है
जो जिये जा रहे जीवन से दूर होता है
जिसमें होता है एक खिंचाव
उस काल्पनिक जीवन की तरफ़
जिसको न पा सकने की स्थिति में
खिंचाव बढ़ता ही चला जाता है
और एक दिन इतना दूर हो जाता है
कि उसे हम आदर्श मान लेते हैं;
किसी विचार का पहुँच से दूर होना
आदर्श होने के पहली कसौटी है;
मैंने इस बात पर सोचा है
और यह पाया इसका उल्टा भी सच हो सकता है
कि साहित्य जिये जा रहे जीवन से
दूर भी कर सकता है।
जीवन जैसे जीना है
जीवन जैसे जिया जा रहा है-
दोनों में एक schism है।"
"बहुत मुमकिन है
कि यह ख़त तुम तक न पहुँचे
लेकिन इसका यह मतलब नहीं
कि ख़त लिखा ही न जाये
हो सकता है कि अभी तक
खतों की पंक्तियाँ
काली स्याही से पोतकर छिपा दी जाती हों
ख़तों को खोलकर पढ़ा जाता हो,
उनको गंतव्य तक भेजने के पहले
यह भी हो सकता है
कि अतिसंवेदनशील मानकर
ख़त को वहीं नष्ट कर दिया जाता हो
फिर भी हम ख़त लिखा करेंगे
(विरोध के लिये ख़ाली ख़त भी)
क्रांति की आग में लकड़ियाँ डालना है
ख़त लिखना होगा।"
"और तुम ख़त में लिखो
साधारण सी बातें, मैं पढ़ूँगा,
तुम लिखो चढ़ी हुई साँसों के साथ
क़दमताल करती हुयी तेज़ धड़कनें,
बारिश के बाद धुली हुयी सड़कें
शांत हो गए पेड़
सड़क पर बिछे हुये
पीली रोशनी में चमकते हुये
अमलतास के पीले फूल
लगता है जिन्हें कोई सड़क पर सजाकर छिप गया हो,
तुम लिखो ज़िन्दगी पर कोई उद्दंड नज़्म,
किसी पगडण्डी की कोई खोई मंज़िल,
सभ्यता की दो धारायें फाँदता हुआ कोई जर्जर पुल,
गेहूँ के खेत में खिले हुये सरसों के पीले फूल,
रेसनिक-हैलीडे के लेक्चर,
कच्ची उम्र के कच्चे क़सीदे,
Led Zeppelin IV के सुरों की समीक्षा,
सूर्य-ग्रहण जो ताज़्ज़ुब से देखा गया था कभी,
तुम लिखो पागलपन, आवारागर्दी,
ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतें,
यह यक़ीन दिलाया जा सकता है
कि इतिहास के दस्तावेज़ों में
इन ख़तों का कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा।"
Dec 11, 2017
औसत चेहरे
भीड़ से मैं रोज़ाना गुज़रता हूँ
और भीड़ में एकदम साधारण चेहरे देखता हूँ
और उनमें खोजता हूँ
धरती, आसमान, दौर, दूरी,
सपने, नींद, रतजगे,
भूख, आराम, धूल, धूप
और ये औसत चेहरे हर जगह हैं;
ठेले पर मक्खियाँ हटाता हुआ एक जलेबी बेंचने वाला,
एक हाथ में नोटों की गड्डी सम्भालता हुआ
और दूसरे हाथ से पेट्रोल भरता हुआ,
बस की भीड़ में अपनी जेबें बचाता हुआ,
तीन रुपये की कलम बेंचता हुआ,
पीला हेल्मेट पहनकर इमारतें बनाता हुआ,
फ़ाइलों के ढेर में डूबा हुआ,
ऑफ़िस में सोता हुआ,
समुद्रतट पर ‘रोमैंटिक वाक' खोजता हुआ,
पार्टियों की शान बनकर रहने वाला,
मोटर साइकल आगे वाले पहिये पर रोककर दिखाता हुआ,
टी वी पर समाचार देखकर चिंतित होता हुआ,
भविष्य को देख लेने का भरोसा देता हुआ,
मंच से समस्याओं का निवारण देता हुआ,
हर एक औसत चेहरा
एक तरह से औसत ज़िंदगी जीता है,
औसत चेहरों के समुद्र में
डूबता रहता है
उतराता रहता है
जब तक साँस ज़िन्दा है तब तक,
समर्पण के पहले तक
घसीटती रहती हैं जिंदगियाँ चेतना को
समय के समक्ष
आत्म-समर्पण कर देने के ठीक पहले तक।
और भीड़ में एकदम साधारण चेहरे देखता हूँ
और उनमें खोजता हूँ
धरती, आसमान, दौर, दूरी,
सपने, नींद, रतजगे,
भूख, आराम, धूल, धूप
और ये औसत चेहरे हर जगह हैं;
ठेले पर मक्खियाँ हटाता हुआ एक जलेबी बेंचने वाला,
एक हाथ में नोटों की गड्डी सम्भालता हुआ
और दूसरे हाथ से पेट्रोल भरता हुआ,
बस की भीड़ में अपनी जेबें बचाता हुआ,
तीन रुपये की कलम बेंचता हुआ,
पीला हेल्मेट पहनकर इमारतें बनाता हुआ,
फ़ाइलों के ढेर में डूबा हुआ,
ऑफ़िस में सोता हुआ,
समुद्रतट पर ‘रोमैंटिक वाक' खोजता हुआ,
पार्टियों की शान बनकर रहने वाला,
मोटर साइकल आगे वाले पहिये पर रोककर दिखाता हुआ,
टी वी पर समाचार देखकर चिंतित होता हुआ,
भविष्य को देख लेने का भरोसा देता हुआ,
मंच से समस्याओं का निवारण देता हुआ,
हर एक औसत चेहरा
एक तरह से औसत ज़िंदगी जीता है,
औसत चेहरों के समुद्र में
डूबता रहता है
उतराता रहता है
जब तक साँस ज़िन्दा है तब तक,
समर्पण के पहले तक
घसीटती रहती हैं जिंदगियाँ चेतना को
समय के समक्ष
आत्म-समर्पण कर देने के ठीक पहले तक।
Dec 7, 2017
बीते हुये भविष्य के किसी दिन
एक सुबह हमें बैठना है
बारिश में नीम के पेड़ के नीचे
और देखना है सूरज को रोककर रखे हुये बादलों को झूमते हुये
घोंसले से झाँकती हुयी एक गौरय्या को,
हमें उठना है और चल देना है
वहाँ जहाँ मिलते हैं धरती और आसमान
जहाँ टाँगा जाता है इंद्रधनुष
जहाँ से उठते हैं पक्षियों के झुण्ड।
एक दिन हमें बैठना है
किसी पहाड़ की ढलान पर
जहाँ बिछी हैं किसी पेड़ की
सींक जैसी पत्तियाँ,
और पिछली यात्रा के स्थान
खोजने हैं पहाड़ियों में
सोचना है कि कितनी राहें चली जा चुकी हैं
और कितनी बाक़ी हैं,
कितनी धारायें पार की जा चुकी हैं।
एक साँझ को सीपियाँ बटोरनी हैं
समुद्र के किनारे बैठकर
गिननी हैं लहरें
करना है विदा सूरज को
जैसे हम विदा करते हैं किसी प्रिय को
यह जानते हुये की अलगाव क्षणिक है
हमें मिलना ही है
और याद कर लेनी है
बीते हुये कल की दुनिया।
एक रात हमें देखना है
गिरते हुये एक पहाड़ी झरने को
जिसका दूधिया रंग चमकता है
रात के उजाले में
जैसे आसमान से उतरती हैं परियाँ,
हमें सुनना है झरने का गिरना
और व्यथित पानी का बेबस चले जाना,
कुरेदना है पानी की यादों को
और फिर छिप जाना है अपने बसेरे में।
बारिश में नीम के पेड़ के नीचे
और देखना है सूरज को रोककर रखे हुये बादलों को झूमते हुये
घोंसले से झाँकती हुयी एक गौरय्या को,
हमें उठना है और चल देना है
वहाँ जहाँ मिलते हैं धरती और आसमान
जहाँ टाँगा जाता है इंद्रधनुष
जहाँ से उठते हैं पक्षियों के झुण्ड।
एक दिन हमें बैठना है
किसी पहाड़ की ढलान पर
जहाँ बिछी हैं किसी पेड़ की
सींक जैसी पत्तियाँ,
और पिछली यात्रा के स्थान
खोजने हैं पहाड़ियों में
सोचना है कि कितनी राहें चली जा चुकी हैं
और कितनी बाक़ी हैं,
कितनी धारायें पार की जा चुकी हैं।
एक साँझ को सीपियाँ बटोरनी हैं
समुद्र के किनारे बैठकर
गिननी हैं लहरें
करना है विदा सूरज को
जैसे हम विदा करते हैं किसी प्रिय को
यह जानते हुये की अलगाव क्षणिक है
हमें मिलना ही है
और याद कर लेनी है
बीते हुये कल की दुनिया।
एक रात हमें देखना है
गिरते हुये एक पहाड़ी झरने को
जिसका दूधिया रंग चमकता है
रात के उजाले में
जैसे आसमान से उतरती हैं परियाँ,
हमें सुनना है झरने का गिरना
और व्यथित पानी का बेबस चले जाना,
कुरेदना है पानी की यादों को
और फिर छिप जाना है अपने बसेरे में।
Dec 3, 2017
तत् त्वम असि
ब्रह्माण्ड के निर्माण में
जितने भी परमाणुओं का प्रयोग हुआ है
उतने में
कुछ और भी उतने ही आसानी से बनाया जा सकता था
उन्हीं परमाणुओं के एक बहुत छोटे से समूह से
बनी हुयी हैं सारी इकाइयाँ
समस्त ब्रह्माण्ड की तुम भी
बस एक छोटी-सी इकाई मात्र हो।
'Free Will' का अस्तित्व है भी क्या?
ये जाना जा चुका है
कि शरीर की समस्त क्रियायें
रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित की जाती हैं
यानी जिस समय हमें लगता है
कि हम स्वतंत्र रूप से सोच-विचार कर सकते हैं
उस समय भी कुछ रासायनिक प्रक्रियायें
हमें ठीक वैसा ही सोचने के लिये प्रयासरत होती हैं,
यह असहज करने वाला ख़याल है।
व्याख्यायें बहुत हैं
जिसने ब्रह्म को जिस तरह से देखा
उसने उसकी उसी तरह से व्याख्या की
ब्रह्म सबकी व्याख्याओं से दूर रहा
व्याख्याओं से सत्य नहीं बदलता
सत्य नाम से परे है
लेकिन नाम दिये बिना
सत्य बताया नहीं जा सकता
क्या इसीलिये सत्य जाना नहीं जा सकता?
सत्य जानने के पहले
स्वयं सत्य की परिभाषा लिखनी पड़ेगी
उसके बाद ही किसी घटना को
'सत्य' के विशेषण से नवाज़ा जा सकेगा।
बिखरी हुयी हैं galaxies
पसरा हुआ है space
और फैला हुआ है time
जैसा हमें दिखता है संसार आज
वो परिवर्तन है
वरना विज्ञान मानता है
कि समय की शुरुआत में
सब एक था
उससे पहले के समय की कल्पना बेतुकी है।
विज्ञान यह भी मानता है
कि जीवन का एक ही स्रोत है
सभी जीवों का जीवन एक ही प्रक्रिया का परिणाम है
और उनमें अंतर
विभिन्न अवस्थाओं के परिणाम हैं
(वैसे तो और भी सिद्धांत हैं
लेकिन इसे लगभग मान ही लिया गया है)
और इस तरह से
जीवन की उत्पत्ति
एक अनियंत्रित, अनियमित घटना थी।
रेल की पटरियों की तरह
जीवन जाता है घने जंगलों में
और फिर से निकल आता है उसी तरह
जंगल के दूसरी तरफ़ से
बिना किसी बदलाव के;
जीवन की कोशिश यही है
कि स्थापित हो जाया जाये
और बदलाव सिर्फ़ बाहरी हों?
रात के दिये
जानते हैं अंधकार का स्थायित्व,
विशालतम तारों से निकलने वाला प्रकाश भी
अंतरिक्ष के अंधकार पर
विजय प्राप्त नहीं कर सकता
जब तक किसी पिण्ड से टकरा नहीं जाये,
मानी तब तक मानी नहीं हैं
जब तक कोई उनमें ख़ुद को खोज न ले,
स्वतंत्र रचना
स्वतंत्र रचनाकार
क्या मात्र भ्रम हैं?
सर्द दिन की किसी दोपहर
जब माहौल सुबह-सा होगा
तब सुनहरी धूप के लिये तरसते हुये
यह ख़याल आना चाहिये
कि सूरज निर्बाध गति से
काटता है चक्कर galaxy के केंद्र के चारों ओर,
वैसे ही चमकता है,
वैसे ही चलती हैं सौर आँधियाँ
ब्रह्म के अनुपात के आगे
ये मौसम, ये दिन-रात, सुबह-शाम
सब hyperlocalized घटनायें हैं।
समय चक्रीय है
रास्ते गोल-गोल घूमते हैं
सबसे बड़ी उपलब्धि यह है
कि जहाँ से शुरुआत हो
वहीं अंत के लिए वापस आ जाना
बिना क्षय के,
और यात्रा के बारे में सोचना;
प्रकृति में सबको
यह उपलब्धि हासिल नहीं है,
समय को भी नहीं, सूरज को भी नहीं।
एक सादे काग़ज़ पर
बनाते हैं कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें
और फिर दे देते हैं उन्हें कुछ मानी
अलग-अलग लोगों के मानी भी
अलग हो सकते हैं;
क्या जीवन भी कुछ ऐसे ही नहीं है?
सबने जीवन को
अपने-अपने मानी दे दिये हैं
क्या सिर्फ़ तुलना करके जाना जा सकता है
कि कौन सा मानी सम्पूर्ण है?
क्या अपने दिये हुये मानी से
संतोष किया जा सकता है?
मनुष्य और प्रकृति में
तालमेल भी है, प्रतियोगिता भी,
किसको प्राथमिकता है
इस बात पर अभी तक
एकमत नहीं हो पाया गया है
मनुष्य भी तो एक तरह से प्रकृति का भाग है
तो क्या यह कहा जा सकता है
कि जो मनुष्य कर रहा है
वह प्रकृति कर रही है?
दी हुयी परिभाषा
और स्वयं खोजी गयी परिभाषा में
कौन उत्तम है
यह जानने का मापक क्या हो सकता है?
(हरमन हेस के सिद्धार्थ ने इनमें से दूसरा रास्ता चुना था)
जब तक परिभाषा खोज न ली जाये
क्या तब तक जीवन जीने का इंतज़ार किया जाये?
जीवन का यूँ तो कोई प्रत्यक्ष मानी नहीं है
और यह बात सालती रही है
मनुष्य जाति को युगों से,
धर्म, दर्शन, विज्ञान, बोली, भाषा,
कविता, त्योहार, बाज़ार, भोग,
ये सब जीवन को तर्कसंगत मानी देने की कोशिशों का ही परिणाम हैं
इतना सब होने के बाद भी
यह नहीं कहा जा सकता
कि जीवन को परिभाषित कर देना
पहले से आसान हो गया है।
और लगभग तभी से
प्रयास जारी है यह जानने के लिये भी
कि मनुष्य की ब्रह्माण्ड में स्थिति क्या है,
उपनिषद में कहा गया है
'तत्त्वमसि'
अर्थात 'तुम' 'वह' हो
और इसकी व्याख्यायें भी अनेक की गयी हैं :
आत्म ब्रह्म है, ब्रह्म आत्म है;
आत्म को जान लेना ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेना है;
आत्म ब्रह्म की एक इकाई मात्र है;
आत्म ब्रह्म की एक अवस्था है;
इत्यादि,
पर उससे पहले यह जानना पड़ेगा
कि 'तत्' क्या है, 'त्वम' क्या है;
'अस्ति' के मायने क्या हैं?
physical presence या consciousness?
गौतम बुद्ध सिखाते थे स्वयं को त्याग देना
मतलब आत्म की उपस्थिति ही
सांसारिक दुखों का कारण है
इस तरह से
बुद्ध मानते थे
कि 'तत्' को 'त्वम' से जोड़ देने में
उस 'आत्म' के जीवन में
दुखों का प्रवेश हो जायेगा,
'तत्' के समक्ष 'मम' की उपस्थिति कैसी है
इस बात पर अभी विवाद है।
जितने भी परमाणुओं का प्रयोग हुआ है
उतने में
कुछ और भी उतने ही आसानी से बनाया जा सकता था
उन्हीं परमाणुओं के एक बहुत छोटे से समूह से
बनी हुयी हैं सारी इकाइयाँ
समस्त ब्रह्माण्ड की तुम भी
बस एक छोटी-सी इकाई मात्र हो।
'Free Will' का अस्तित्व है भी क्या?
ये जाना जा चुका है
कि शरीर की समस्त क्रियायें
रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित की जाती हैं
यानी जिस समय हमें लगता है
कि हम स्वतंत्र रूप से सोच-विचार कर सकते हैं
उस समय भी कुछ रासायनिक प्रक्रियायें
हमें ठीक वैसा ही सोचने के लिये प्रयासरत होती हैं,
यह असहज करने वाला ख़याल है।
व्याख्यायें बहुत हैं
जिसने ब्रह्म को जिस तरह से देखा
उसने उसकी उसी तरह से व्याख्या की
ब्रह्म सबकी व्याख्याओं से दूर रहा
व्याख्याओं से सत्य नहीं बदलता
सत्य नाम से परे है
लेकिन नाम दिये बिना
सत्य बताया नहीं जा सकता
क्या इसीलिये सत्य जाना नहीं जा सकता?
सत्य जानने के पहले
स्वयं सत्य की परिभाषा लिखनी पड़ेगी
उसके बाद ही किसी घटना को
'सत्य' के विशेषण से नवाज़ा जा सकेगा।
बिखरी हुयी हैं galaxies
पसरा हुआ है space
और फैला हुआ है time
जैसा हमें दिखता है संसार आज
वो परिवर्तन है
वरना विज्ञान मानता है
कि समय की शुरुआत में
सब एक था
उससे पहले के समय की कल्पना बेतुकी है।
विज्ञान यह भी मानता है
कि जीवन का एक ही स्रोत है
सभी जीवों का जीवन एक ही प्रक्रिया का परिणाम है
और उनमें अंतर
विभिन्न अवस्थाओं के परिणाम हैं
(वैसे तो और भी सिद्धांत हैं
लेकिन इसे लगभग मान ही लिया गया है)
और इस तरह से
जीवन की उत्पत्ति
एक अनियंत्रित, अनियमित घटना थी।
रेल की पटरियों की तरह
जीवन जाता है घने जंगलों में
और फिर से निकल आता है उसी तरह
जंगल के दूसरी तरफ़ से
बिना किसी बदलाव के;
जीवन की कोशिश यही है
कि स्थापित हो जाया जाये
और बदलाव सिर्फ़ बाहरी हों?
रात के दिये
जानते हैं अंधकार का स्थायित्व,
विशालतम तारों से निकलने वाला प्रकाश भी
अंतरिक्ष के अंधकार पर
विजय प्राप्त नहीं कर सकता
जब तक किसी पिण्ड से टकरा नहीं जाये,
मानी तब तक मानी नहीं हैं
जब तक कोई उनमें ख़ुद को खोज न ले,
स्वतंत्र रचना
स्वतंत्र रचनाकार
क्या मात्र भ्रम हैं?
सर्द दिन की किसी दोपहर
जब माहौल सुबह-सा होगा
तब सुनहरी धूप के लिये तरसते हुये
यह ख़याल आना चाहिये
कि सूरज निर्बाध गति से
काटता है चक्कर galaxy के केंद्र के चारों ओर,
वैसे ही चमकता है,
वैसे ही चलती हैं सौर आँधियाँ
ब्रह्म के अनुपात के आगे
ये मौसम, ये दिन-रात, सुबह-शाम
सब hyperlocalized घटनायें हैं।
समय चक्रीय है
रास्ते गोल-गोल घूमते हैं
सबसे बड़ी उपलब्धि यह है
कि जहाँ से शुरुआत हो
वहीं अंत के लिए वापस आ जाना
बिना क्षय के,
और यात्रा के बारे में सोचना;
प्रकृति में सबको
यह उपलब्धि हासिल नहीं है,
समय को भी नहीं, सूरज को भी नहीं।
एक सादे काग़ज़ पर
बनाते हैं कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें
और फिर दे देते हैं उन्हें कुछ मानी
अलग-अलग लोगों के मानी भी
अलग हो सकते हैं;
क्या जीवन भी कुछ ऐसे ही नहीं है?
सबने जीवन को
अपने-अपने मानी दे दिये हैं
क्या सिर्फ़ तुलना करके जाना जा सकता है
कि कौन सा मानी सम्पूर्ण है?
क्या अपने दिये हुये मानी से
संतोष किया जा सकता है?
मनुष्य और प्रकृति में
तालमेल भी है, प्रतियोगिता भी,
किसको प्राथमिकता है
इस बात पर अभी तक
एकमत नहीं हो पाया गया है
मनुष्य भी तो एक तरह से प्रकृति का भाग है
तो क्या यह कहा जा सकता है
कि जो मनुष्य कर रहा है
वह प्रकृति कर रही है?
दी हुयी परिभाषा
और स्वयं खोजी गयी परिभाषा में
कौन उत्तम है
यह जानने का मापक क्या हो सकता है?
(हरमन हेस के सिद्धार्थ ने इनमें से दूसरा रास्ता चुना था)
जब तक परिभाषा खोज न ली जाये
क्या तब तक जीवन जीने का इंतज़ार किया जाये?
जीवन का यूँ तो कोई प्रत्यक्ष मानी नहीं है
और यह बात सालती रही है
मनुष्य जाति को युगों से,
धर्म, दर्शन, विज्ञान, बोली, भाषा,
कविता, त्योहार, बाज़ार, भोग,
ये सब जीवन को तर्कसंगत मानी देने की कोशिशों का ही परिणाम हैं
इतना सब होने के बाद भी
यह नहीं कहा जा सकता
कि जीवन को परिभाषित कर देना
पहले से आसान हो गया है।
और लगभग तभी से
प्रयास जारी है यह जानने के लिये भी
कि मनुष्य की ब्रह्माण्ड में स्थिति क्या है,
उपनिषद में कहा गया है
'तत्त्वमसि'
अर्थात 'तुम' 'वह' हो
और इसकी व्याख्यायें भी अनेक की गयी हैं :
आत्म ब्रह्म है, ब्रह्म आत्म है;
आत्म को जान लेना ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेना है;
आत्म ब्रह्म की एक इकाई मात्र है;
आत्म ब्रह्म की एक अवस्था है;
इत्यादि,
पर उससे पहले यह जानना पड़ेगा
कि 'तत्' क्या है, 'त्वम' क्या है;
'अस्ति' के मायने क्या हैं?
physical presence या consciousness?
गौतम बुद्ध सिखाते थे स्वयं को त्याग देना
मतलब आत्म की उपस्थिति ही
सांसारिक दुखों का कारण है
इस तरह से
बुद्ध मानते थे
कि 'तत्' को 'त्वम' से जोड़ देने में
उस 'आत्म' के जीवन में
दुखों का प्रवेश हो जायेगा,
'तत्' के समक्ष 'मम' की उपस्थिति कैसी है
इस बात पर अभी विवाद है।