भीड़ से मैं रोज़ाना गुज़रता हूँ
और भीड़ में एकदम साधारण चेहरे देखता हूँ
और उनमें खोजता हूँ
धरती, आसमान, दौर, दूरी,
सपने, नींद, रतजगे,
भूख, आराम, धूल, धूप
और ये औसत चेहरे हर जगह हैं;
ठेले पर मक्खियाँ हटाता हुआ एक जलेबी बेंचने वाला,
एक हाथ में नोटों की गड्डी सम्भालता हुआ
और दूसरे हाथ से पेट्रोल भरता हुआ,
बस की भीड़ में अपनी जेबें बचाता हुआ,
तीन रुपये की कलम बेंचता हुआ,
पीला हेल्मेट पहनकर इमारतें बनाता हुआ,
फ़ाइलों के ढेर में डूबा हुआ,
ऑफ़िस में सोता हुआ,
समुद्रतट पर ‘रोमैंटिक वाक' खोजता हुआ,
पार्टियों की शान बनकर रहने वाला,
मोटर साइकल आगे वाले पहिये पर रोककर दिखाता हुआ,
टी वी पर समाचार देखकर चिंतित होता हुआ,
भविष्य को देख लेने का भरोसा देता हुआ,
मंच से समस्याओं का निवारण देता हुआ,
हर एक औसत चेहरा
एक तरह से औसत ज़िंदगी जीता है,
औसत चेहरों के समुद्र में
डूबता रहता है
उतराता रहता है
जब तक साँस ज़िन्दा है तब तक,
समर्पण के पहले तक
घसीटती रहती हैं जिंदगियाँ चेतना को
समय के समक्ष
आत्म-समर्पण कर देने के ठीक पहले तक।
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